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कुमावत महापंचायत समाज की जरूरत - लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला

जयपुर में कुमावत समाज की महापंचायत में सम्मिलित होने का सुअवसर मिला। भारत तथा राजस्थान की वैभवशाली कला व संस्कृति को सहेजने तथा और समृद्ध बनाने में समाजबंधुओं का अतुलनीय योगदान है। उनकी सृजनात्मकता का ही परिणाम है कि देश-विदेश से पर्यटक यहां का शिल्प और मूर्ति कला देखने आते हैं। बदलते समय के साथ समाज अब अपनी गौरवशाली विरासत को संरक्षित करते हुए आधुनिक तकनीक का भी समावेश करे। सामाजिक-राजनैतिक रूप से आगे बढ़ने के लिए कुमावत समाज ग्रामीण क्षेत्रों तक भावी पीढ़ी विशेषतः बेटियों में शिक्षा और संस्कारों को बढ़ावा दे। इस तरह के आयोजनों में बुनियादी विषयों पर चर्चा के साथ समाज के अंतिम व्यक्ति के कल्याण के लिए सामुहिकता से कार्ययोजना बनाई जाए। सार्थक और सकारात्मक सामूहिक निर्णयों से समाज आगे बढ़ेंगे तो निश्चित तौर पर देश भी नई ऊंचाइयों को छुएगा।

कुमावत कौन है?

एक नजर समाज के गौरवमय इतिहास गाथा की एक झलक बड़े भाई पत्रकार आदरणीय #श्री_जितेंद्र_सिंह_शेखावत_जी की कलम से.....           कुमावत शिल्पियों को प्रदत्त शिल्पकला ईश्वर का अनूठा वरदान है । सालों पहले बनाए गए गढ़,किले,मंदिर और महलों में बाल जितना भी इन्होनें दोष नहीं छोड़ा । ख़ून पसीना सींच मेहनत और ईमानदारी से काम करने में माहिर कुमावतों का कला और शिल्प आज भी मुंह बोलता है । जयपुर, आगरा, ग्वालियर,पुणे और देश में बनी इमारतों में कुमावत शिल्पियों की आत्मा बसती है। यही कारण है कि इनकी बनाई कृतियों को निहारने के लिए आज संपूर्ण संसार का पर्यटक भारत आता है । इनकी उत्कृष्ट कलाकृतियों को देख लोग, दांतों तले अंगुली दबाते हैं  और कहते हैं वाह-वाह, इन कृतियों को रचनाकार को... ताजमहल,संसद भवन, राष्ट्रपति भवन के अलावा मारवाड़, ढूंढ़ाड़,मेवाड़,वागड़ और शेखावटी ही नहीं, पूरे देश में, कुमावतों की कारीगरी का डंका बजता है ।  मेवाड़ में मंडन, नामा, पूंजा की देख-रेख में बने अद्वितीय किलों और मंदिरों की कलाकृतियां, कुमावतों शिल्पियों के हथौड़े,करणी, छैनी और उनकी मेहनत की स्वर...

कुमावत महापंचायत क्यों??

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कुमावत महापंचायत क्यों?? कई सभ्यताएं जब पहाड़ों की कंदरा व गुफाओं में आश्रय ढूंढ रही थी तब हमारा सफर वैदिक काल के चिति या यज्ञवेदीके निर्माण से लेकर शस्त्रद्वारम व सहस्त्रस्थूणम से होते हुए वृहत्संहिता, मानसार, मयमतम, समरांगण-सूत्रधार, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, शिल्परत्नसार, विश्वकर्मीय प्रकाश से होते हुए राजवल्लभ वास्तुशास्त्र एवं वास्तु मण्डनम से मुगलकाल होते हुए उतर मध्यकाल तक कई नामों का ये सफर स्थपति से शुरू होकर सलावट, कारू, कारीगर, गजधर,उस्ता मिस्त्री, राजमिस्त्री, राजगीर, संतरास, नाईक, गवंडी परदेशी बेलदार से होते हुए सबको समाहित करके आधुनिक काल मे एकीकृत "कुमावत" तक पहुंचा है। जिस तरह रियासत कालीन दौर से सरदार वल्लभभाई पटेल ने एकीकृत भारत का नारा दिया ठीक उसी प्रकार स्थापत्य से सम्बंधित वर्ग एकीकृत होकर "कुमावत" बना है जिसे महाराणा कुंभा द्वारा संबोधित किया गया था। हालांकि हमारी उदासीनता ने धीरे धीरे सबकुछ हमसे छीन लिया है अब जयपुर को ही देख लीजिए जिसकी बसावट के प्रमुख वास्तुशिल्पी अनंतराम केकटीया द्वारा बनाये गए कपड़े के नक...

जाति व्यवस्था एवं कुमावत

भारत में आर्य सभ्यता का विकास प्रारंभ हुआ,तब यह क्षेत्र आर्याव्रत कहलाया अफगानिस्तान से लेकर ब्रह्मा तक के इस क्षेत्र में राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में पितृसत्तामक परिवार के आधार पर बनने लगी। इस युग में जीवन सुखी व खुशहाल बनाने के लिए समाज मे वर्ण व्यवस्था का सूत्रपात हुआ।, उत्तर वैदिक काल में राजतंत्र और राजाऔ के वर्चस्व में अत्यधिक वृद्धि और राजाओं का चयन वंशागुतक आधार पर होने लगे,और इसी दोर मे वंशवाद का सूत्रपात हुआ। सामाजिक व्यवस्था के सूत्रपात के लिए व्यवहार शास्त्र का प्रारंभ हुआ,और इसी कारण आर्य सभ्यता का वैदिक काल भारतीय सभ्यता का विकास काल करवाया गया।         प्राचीन भारत में जातिय व्यवस्था नही थी,बल्कि वर्ण व्यवस्था प्रचिलित थी,समाज चार भागो मे विभाजित था। वर्णो का निर्धारण कर्म के आधार पर आधारित था। जो जेसा कर्म करता था व उसा वर्ण में माना जाता था। वर्तमान जाति व्यवस्था प्राचीन वर्ण व्यवस्था का ही परिवर्तित स्वरूप है।प्रारंभिक सामाजिक व्यवस्था को कालांतर में धार्मिक संबल भी प्राप्त हो गया और जाति व्यवस्था सुदृढ़ होती गई,कालांतर में जाति व्यवस्था को सम...

कुमावत जाति एवं प्राचीन पहचान

कुमावत समाज के अस्तित्व को लेकर कई तरह की मिथ्या धारणाऐ प्रचलित हैं।राजनेतिक वर्चस्व की लड़ाई में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए कुछ लोग दुसरी जाति का हिस्सा बता कर इसके अस्तित्व को ही समाप्त करने का प्रयास कर रहे हैं,जो इस जाति जाति के साथ कुछ लोगों का खिलवाड़ मात्र है। राजस्थान ही नही अन्य राज्यों में यह समाज जहाँ भी निवास करती है,समूह के रूप में निवास करती है। दुसरी जाति की तरह नही जिसके हर गाँव में एक दो घर मिल जायेगे। क्योंकि कर्म के आधार पर वह जाति प्रत्येक गाँव में पाई जाती है। किन्तु कुमावत जाति अपने सृजन कार्यो के लिए समूह के रूप में निवास करते रहे हैं। उसका कारण भी रहा है,देश काल में राजा,रजवाडो,सेठ साहूकारो के गढ महल,किले,हवेलियो,का निर्माण हो या जलाशयो का उनके सृजन के लिए कई कारीगरो की आवश्यकता होती थी,इस लिए कुमावत समूह के रूप में जाकर उस कार्य को पूर्ण करते थे,जो वर्षों चलता था, इस कारण कुछ वही रूक जाते थे,तथा शेष नवसृजन के लिए अन्य स्थानों पर रवाना हो जाते थे। इसी कारण कुमावत समाज वही है जहाँ गढ महल किले हवेलि या है, या खेती से सम्पन्न धरा है,जहा भी है अच्छी संख्या में...

कुमावत - संदर्भ

कुमावत जाति के वंशजों और उनके द्वारा निर्मित ऐतिहासिक धरोहरो के बारे मै प्रमाणिक और प्रभूत साक्ष्यों की बहुत बड़ी कमी रहने के बावजूद भारत के विभिन्न प्रांतो के नगरीय व ग्रामीण क्षेत्र मै रहे बसे कुमावत समाज के कतिपय महानुभावो, और विशेषकर जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर, बाडमेर, जालोर, सिरोही, पाली, राजसमंद, उदयपुर, चितौडगढ, भीलवाड़ा, टोक, अजमेर, आबू, सीकर, भीलवाड़ा, ब्यावर, पुष्कर, दिल्ली, भोपाल, अहमदाबाद, श्री गंगानगर, सुरत, पुणे, भिवानी, बडौदा,औरंगाबाद, रतलाम, उज्जैन, इन्दौर, के लोगो से,अपने शोध मै व्यक्तिगत, या मेल, के दवारा  सरकारी प्रशनावली संदर्भ ग्रंथो, सरकारी दस्तावेज  राजवंशो के पोथी खाने  आदि राव भाटो की पोथियो आदि दस्तावेजों  के माध्यम से जो जान पाया, और समझ सका वह निरपेक्ष रूप से आपके कर किलो मै अर्पित है।निःसंदेह मै इस तथ्य को स्वीकार करता हू।कि लेखन एक निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया है।वह कोई अंतिम निर्णय नही है।जेसे जेसे शोध की परते खुलती जाती है।इसमे आवश्यक संशोधन जरूरी होते जाते है।कोई भी इतिहास वेता और इतिहास लेखक इस बात का दावा नही कर सकता,कि जो कुछ उसने ...

चितौड़गढ़ मे कुमावत जाति के द्वारा स्थापत्य सृजन

चितौड़ मे निर्माण कार्य का दुर्ग में प्रमुख रूप से निम्न प्रकार था।  श़ृंगार चंवरी कुम्भ श्याम, कीर्ति स्तम्भ,सतबीस देवरी,और गौमुख,का इलाका,इसमे कुंभा के महल भी सम्मिलित हैं। राजमहल होने से यह सबसे प्रभावशाली स्थान रहा प्रतित होता है। २ दुसरा महत्वपूर्ण इलाका कुकडेश्वर मंदिर अन्नपूर्णा मंदिर माता का कुण्ड का भाग है। जो 8वी शताब्दी के आसपास उन्नत अवस्था में था 3 सूर्य कुण्ड सूर्य मंदिर आदि का भाग और चोथा भाग जैन कीर्ति स्तम्भ नील कंठ मंदिर तक का भाग हो सकता है! यही मोटे तौर पर चोथे भाग को पहले के साथ देखा जा सकता है! दुर्ग बनने के साथ भवनो व मंदिरो का निर्माण का क्रम जारी रहा प्रतित होता है। क्योंकि 8वी  शताब्दी के भवनों के अवशेष आज भी विद्यमान है। इस समय के वास्तु शिल्पीयो के नाम तो इन अवशेषो में पाये नही गये। किन्तु जिस शैली में यह निर्माण सतत् जारी रहा उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है! कि 8वी सदी के निर्माण शिल्पी भी आज के कुमावत ही रहे हैं। भले ही उन्हें सलावट जाति के नाम से जाना जाता रहा हो, दुर्ग पर परमार और सोलंकियो के अधिकार काल में कुछ जैन मंदिर व वैष्णव मंदिर बनना ग्या...