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चितौड़गढ़ मे कुमावत जाति के द्वारा स्थापत्य सृजन

चितौड़ मे निर्माण कार्य का दुर्ग में प्रमुख रूप से निम्न प्रकार था।  श़ृंगार चंवरी कुम्भ श्याम, कीर्ति स्तम्भ,सतबीस देवरी,और गौमुख,का इलाका,इसमे कुंभा के महल भी सम्मिलित हैं। राजमहल होने से यह सबसे प्रभावशाली स्थान रहा प्रतित होता है। २ दुसरा महत्वपूर्ण इलाका कुकडेश्वर मंदिर अन्नपूर्णा मंदिर माता का कुण्ड का भाग है। जो 8वी शताब्दी के आसपास उन्नत अवस्था में था 3 सूर्य कुण्ड सूर्य मंदिर आदि का भाग और चोथा भाग जैन कीर्ति स्तम्भ नील कंठ मंदिर तक का भाग हो सकता है! यही मोटे तौर पर चोथे भाग को पहले के साथ देखा जा सकता है! दुर्ग बनने के साथ भवनो व मंदिरो का निर्माण का क्रम जारी रहा प्रतित होता है। क्योंकि 8वी  शताब्दी के भवनों के अवशेष आज भी विद्यमान है। इस समय के वास्तु शिल्पीयो के नाम तो इन अवशेषो में पाये नही गये। किन्तु जिस शैली में यह निर्माण सतत् जारी रहा उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है! कि 8वी सदी के निर्माण शिल्पी भी आज के कुमावत ही रहे हैं। भले ही उन्हें सलावट जाति के नाम से जाना जाता रहा हो, दुर्ग पर परमार और सोलंकियो के अधिकार काल में कुछ जैन मंदिर व वैष्णव मंदिर बनना ग्या...

चितौड़गढ़ : निर्माण के इतिहास में कुमावत शिल्पीयो का योगदान

महान वास्तुकार मंडन के दुसरे पुत्र ईश्वर का उल्लेख जावरा की वि स 1554 की प्रशस्ति मै है। उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित अप्रकाशित खरतरगच्छ के एक लेख में ईश्वर के पुत्र छीतर का उल्लेख है यही उल्लेखित खेता खनारिया के दो पुत्र मंडन व नाथा मंडन के दो पुत्र गोविन्द व ईश्वर ईश्वर के पुत्र छीतर इसी तरह कुम्भा के समकालीन एक उल्लेखनीय परिवार का वर्णन है। वास्तु शास्त्र व भवन निर्माण के शिल्पकार लाखा के पुत्र जैता मंडावरा व उसका भाई नारद  जिसका उल्लेख वि स 1495 की चित्तोड की महवीर प्रसाद प्रशस्ति मै हो रहा है। इस परिवार के कई लेख मिले है, जिनमें इस परिवार के द्वारा किये गये निर्माण कार्यों का भी उल्लेख है। पर  वि स 1515 का लेख महत्वपूर्ण है। इसमे लाखा मंडावरा को "सकलवास्तुशास्तरविशारद" कहा गया है। जो इसकी महानता को दर्शाता है।  विभिन्न लेखों में जैता के पुत्रों का वर्णन है। जैता के पुत्रों के नाम नापा, पामा,पूंजा,भूमि,चुथी, व बलराज,थे  इनके अलावा भी चित्तोड मे कई शिल्पकार हुए हैं। वि स 1538 मै एक अप्रकाशित मूर्ति के लेख में शिल्पकार शिहा द्वारा शांतिनाथ की मूर्ति बनाने का उल्ल...

चितौड़गढ़ : निर्माण के इतिहास में कुमावत शिल्पीयो का योगदान २

चित्तोड के इतिहास में कई स्थापत्य कला के उल्लेखनीय शिल्पीयो हुए हैं। जिनकी भल्लभ सूर्य से सम्बन्धित शक स० 1028 के शिलालेख में "राम देव: सुधी: सुव्यक्ता जसदेव सूनुरूदकारीत्सूत्तधाराग्रणी" शब्द अंकित है। इसी प्रकार वि स 1207की कुमारपाल की प्रशस्ति मै सूत्रधार(शिल्पकार) का नाम स्पष्ट नही है। समिध्देश्वर के मंदिर के स्तम्भ पर वि स 1286  के दो लेख खुदे है। जिनपर शिल्पकारो के नाम खुदे है। रावल समरसिंह की चित्तोड की प्रशस्ति मै "सज्जनेन समुत्कीर्णा प्रशस्ति: शिल्पानामुना" शब्द है जो शिल्पकारो की प्रशस्ति मै लिखा गया है। पर शिल्पकारो की कुछ विशिष्ट परिवारों का उल्लेख 15वी शताब्दी में चित्तोड के इतिहास में दर्ज है। चित्तोड के स्थापत्य सूत्रधार वीजल के पुत्र माना और माना के  पुत्र वीस व वीसल का उल्लेख मिलता है। इतिहासकार रतन चंद्र ने अपने लेख मैवाड के कुशल शिल्पी मै इनका विस्तार से वर्णन लिखा है! माना के लिए कई सुन्दर प्रशाद निर्माण के लिए लिखा है! इस परिवार के लिए " गुणवान "  लेख में भी उल्लेख है। जिसमे लिखा है! मनाख्यो सकल गुणगाण बीजल सुख: शिल्पी जातो गुणगाण,युतो...

राजस्थान का स्थापत्य - चित्रकला

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राजस्थान का स्थापत्य - चित्रकला  शेखावाटी अपनी हवेलियों के लिए विष्व प्रसिद्ध है जिसका कारण इन हवेलियों में बनाये गये भिती चित्र है। इस क्षेत्र में रामगढ़, फतेहपुर, लक्ष्मणगढ़, मंडावा, महनसर , बिसाऊ, नवलगढ़, डूडलोद व मुकंदगढ़ जैसे कस्बे हवेलियों के कारण ही आज भी विश्व  के   सैलानियों का आकर्षण का केन्द्र बने हुए है। इन हवेलियों के गुम्बद से लेकर तलघर तक भिती चित्रों से अटे पड़े है। विश्व में भिती चित्रों पर शोध  करने वाले अनेक शोधार्थी हर साल यहां आते है। शेखावाटी को खुली कला दीर्घा भी कहा जाता है। वर्तमान समय में इन हवेलियों के भिती चित्रों को देखने से पता चलता है कि इस चित्रकारी पर अलग-अलग युग का असर रहा है। कहीं मुगलकालीन दरबार व चित्रषैली देखने को मिलती है तो कहीं पारसी षैली का भी प्रभाव है। शेखावाटी में सामन्त एवं धनाढ्य वर्ग ने दर्शनीय गढ़ो, हवेलियों, छत्रियो व् मंदिरों आदि का निर्माण स्थानीय कुमावत चेजारा वर्ग द्वारा किया गया था, उन्ही के द्वारा इन स्मारकों पर अत्यन्त कलात्मक भित्ति चित्रों का विभिन्न धातु एवं खनिज रंगो आराईस आदि के माध्यम से ...

प्रधान वास्तुविद तथा मूर्तिशास्त्री मंडन एक परिचय

                               शिल्पी मंडन खनारिया                          वास्तुविद तथा मूर्तिशास्त्री मंडन की जन्म तिथि तो ज्ञात नहीं किन्तु  महाराणा कुंभा (1433-1468 ई.) का प्रधान सूत्रधार (वास्तुविद) तथा मूर्तिशास्त्री शिल्पी मंडन था। रूपमंडन में मूर्तिविधान की इसने अच्छी विवेचना प्रस्तुत की है। मंडन सूत्रधार केवल शास्त्रज्ञ ही न था, अपितु उसे वास्तुशास्त्र का प्रयोगात्मक अनुभव भी था। मंडन सूत्रधार वास्तुशास्त्र का प्रकांड पडित तथा शास्त्रप्रणेता था। इसने पूर्वप्रचलित शिल्पशास्त्रीय मान्यताओं का पर्याप्त अध्ययन किया था। इनकी कृतियों में मत्स्यपुराण से लेकर अपराजितपृच्छा और हेमाद्रि तथा गोपाल के संकलनों का प्रभाव था। काशी के कवींद्राचार्य (17वीं शती) की सूची में इनके  ग्रंथों की नामावली मिलती है। मंडन की रचनाएँ निम्नलिखित हैं- 1. देवतामूर्ति प्रकरण 2. प्रासादमंडन 3. राजबल्लभ वास्तुशास्त्र 4. रूपमंडन 5. ...

राजस्थान का स्थापत्य - चित्रकला II

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                         राजस्थान का स्थापत्य - चित्रकला Nadine Le Prince Cultural Center नामक हवेली, जो पहले देवड़ा हवेली के नाम से जाना जाता था, को फ्रांस की एक कलाकार Nadine Le ने सन् 1998 में खरीदा और इस कलाकारी को फिर से जीवंत कर दिया।                                                                    पटवा हवेली जैसलमेर  डॉ कनुप्रिया कुमावत के शोध पत्र कुमावत कलाकारों का योगदान व चेजारा चितेरों द्वारा शेखावाटी की हवेलियों के चित्र व चित्रांकन पर अंग्रेजो का प्रभाव से कुछ अंश लिए गए है। लेखिका ने यह शोध पत्र राजस्थान स्कूल ऑफ़ आर्ट की तरफ से कानोडिया कॉलेज में हुए एक सेमिनार में पढ़ा था। विस्तृत जानकारी के लिए लेखिका को खोजने के काफी प्रयासों के बाद भी सम्पर्क नहीं हो सका  http://moomalgaliy...

जगदीश मंदिर, उदयपुर

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जगदीश मंदिर उदयपुर  शिल्पी भाण व उसके पुत्र मुकुन्द   उदयपुर स्थित जगदीश मंदिर मूलतः भगवान जगन्नाथ राय का मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण महाराणा जगत सिंह द्वारा 1652 ई. में करवाया गया था। यह मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित है और शहर के सबसे प्राचीन बड़े मंदिर के रूप में माना जाता है। इंडो - आर्यन स्थापत्य शैली में निर्मित इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ राय (कृष्ण) के अतिरिक्त भ्राता बलराम और बहन सुभद्रा की प्रतिमाएँ स्थापित की गई है।  यह मंदिर सुंदर नक़्क़ाशीदार खंभों, चित्रित दीवारों और छत के साथ एक तीन मंजिला संरचना है। पहली और दूसरी मंजिल पर 50 खम्भे हैं। मंदिर के शीर्ष की ऊंचाई 79 फुट है जिस पर हाथियों और सवारों के साथ संगीतकारों और नर्तकियों की प्रतिमाओं को देखा जा सकता है। यहाँ भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ की प्रतिमा मंदिर के द्वार पर स्थापित है। महाराणा जगत सिंह के आदेश से इस मंदिर के ऊपरी भाग में (सभामंडप के प्रवेश द्वार पर) की दोनों ओर की ताको में जगदीश मंदिर की प्रशस्ति लगाई गई है । चिकने काले पत्थर पर श्लोकबद्ध उत्कीर्ण इस प्रशस्ति में मेव...
राजपूताना के इतिहास व मालवा,तथा गुजरात के इतिहास में चावडा राजपूतो का वर्णन पाया गया है। कई प्रशस्ति मै पाया गया है। इनके वंंशज वास्तु शास्त्र  व मुर्ति कला के उल्लेखनीय शिल्पी हुए हैं। उस काल मै  इस कला को राज परिवार के लोग व ब्राह्मण किया करते थे।   समय के साथ इनके परिवार शिल्पवत सृजन के शिल्पी बन गया और कुमार शिल्पी,शिल्पकार, संतरास राजकुमार शिल्पी सलावट आदि नामों से जाना जाने लगे, इस बात का प्रमाण कुमारपाल के शासनकाल के शिलालेख चित्तोड से मिले है। वि स 1207 के लेख में वर्णित है। कि जब वह सपादलक्ष विजय करके लोट रहा था। तब वह मार्ग मै रुककर चित्तोड मै तिरीभूवन नारायण मंदिर के दर्शन किये,उस समय वहा दंडनायक सज्जन था। जो कुमार जाति का था, जिसका विसलदेव चौहान से हुए युद्ध का वर्णन है। यह शिलालेख इस बात को स्पष्ट करता है। कि आदिकालीन में कुमावत जाति का  राजपूत राजवंशो से संबंध रहा है।  राजपूत इतिहास में भी उस समय के चावडा राजपूतो को आज की कुमावत जाति मानी गई है। जिसका उल्लेख राजपूतो के इतिहास में दर्ज है। और चावडा राजपूतो के इलाके का वर्णन पाया गया है। उसी इलाके म...

वास्तुकला

भवनो के विन्यास आकल्पन और रचना की तथा परिवर्तनशील समय तकनीक और रूची के अनुसार मानव की आवश्यकताओं को संतुष्ट करने योग्य सभी प्रकार के स्थानों के तर्कसंगत एवं बुद्दिसंगत निर्माण की कला विज्ञान तथा तकनीक का सम्मिश्रण वास्तुकला (आर्किटैक्चर)कहलाती हैं। वास्तुकला पुरातन काल की सामाजिक स्थिति प्रकाश में लाने वाला मुद्रणालय कही गई है। इसको और स्पष्ट किया जा सकता है! यह ललित कला की वह शाखा है। जिसका उद्देश्य औधोगिकी का सहयोग लेते हुए उपयोगिता की दृष्टि से उत्तम भवन निर्माण करना है। जिसका पर्यावरण सुसंस्कृत एवं कलात्मक रूची के लिए अत्यंत प्रिय सौंदर्य भावना से पोषक तथा आनन्दकर एव आनन्दवर्दक हो प्रकृति बुद्धि द्वारा निर्धारित कर कतिपय सिद्धांतों व अनुपातो से रचना करना इस कला की मुख्य धारा है। नक्शो व पिंडो का ऐसा विन्यास करना व भवनो की संरचना को अत्यंत उपयुक्त ढंग से समृद्ध करना,जिससे अधिकत्तम सुविधाओं के साथ रोचकता सौंदर्य,महानता,एकरूपता,और शक्ति की सृष्टि हो वह वास्तु शास्त्र कहलाता है। प्रारंभिक अवस्थाओ मै अथवा स्वल्पासिद्धि,के साथ वास्तुकला का स्थान मानव के लिए सिमित प्रियोजनो आवश्यक पेशा,य...

शिल्पकला एवं कुमावत

स्थापत्य शिल्प साधना मै पारंगत कुमावत जाति राजपूताना की वह जाति है। जिसके लिए कहाँ जाता है। कि इस जाति मै जन्मजात यानि पैदायसी वास्तु शास्त्र के ग्याता होते हैं। भवन निर्माण के विश्वकर्मा के रूप में जाने जाने वाली यह राजस्थान की आदिकालीन जाति है। भारत मै आर्य सभ्यता का विकास प्रारंभ हुआ। तब यह क्षेत्र आर्य वत कहलाया अफगानिस्तान से लेकर ब्रह्मा तक के इस क्षेत्र मै राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में पितृ सत्तात्मक परिवार मै आधार बनने लगे,इस युग में जीवन सुखी व खुशहाल बनाने के लिए समाज में वर्ण व्यवस्था का सूत्रपात हुआ।उत्तर वैदिक काल में राज तंत्र और राजाओं के वच्रस्व में अत्याधिक वृद्धि और राजाओं का चयन वंशानुगत आधार मै होने लगे, और इसी दोर मै वंशवाद का सूत्रपात हुआ। सामाजिक व्यवस्था के सूत्रपात के लिए व्यवहार शास्त्र का प्रारंभ हुआ। और इस कारण आर्य सभ्यता का वैदिक काल भारतीय सभ्यता का विकास काल कहलाया,                                      प्राचीन भारत में जातियाँ व्यवस्था नही थी,बल्कि वर्ण व्यवस्...

जयपुर की समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा और कुमावत

आमेर के तौर पर यह जयपुर नाम से प्रसिद्ध प्राचीन रजवाड़े की भी राजधानी रहा है। इस शहर की स्थापना १७२८ में आमेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने की थी। जयपुर अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा , सरस-संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। जयपुर शहर की पहचान यहाँ के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है जो यहाँ के स्थापत्य की खूबी है।  जयपुर को आधुनिक शहरी योजनाकारों द्वारा सबसे नियोजित और व्यवस्थित शहरों में से गिना जाता है। देश के सबसे प्रतिभाशाली वास्तुकारों में इस शहर के वास्तुकार विद्याधर चक्रवर्ती का नाम सम्मान से लिया जाता है। किन्तु वास्तविक वास्तुकार थे उस्ता लालचंद इतिहास तो तोड़ मरोड़ कर पेश कर विद्याधर चक्रवर्ती का नाम जोड़ दिया गया जयपुर आयोजन के कपडे पर बने पुराने नक़्शे आज भी सुरक्षित है जिस पर उस्ता लाल चंद के हस्ताक्षर है ।विद्याधर चक्रवर्ती तो आमेर दरबार की 'कचहरी-मुस्तफी' में  महज़ एक नायब-दरोगा (लेखा-लिपिक) थे,किन्तु इतिहासकारो ने लेखा- लिपिक को वास्तुविद्य बना दिया। जयपुर को भारत का पेरिस भी कहा जाता है। इस शहर के वास्तु के बार...

प्रधान वास्तुविद तथा मूर्तिशास्त्री मंडन एक परिचय

शिल्पी मंडन की मूर्ति विजय स्तंभ में कुर्सी पर विराजित रूप में  राजपुताना वीरों की इस धरा पर वीरों के साथ ज्ञान और कार्य की पूजा भी खूब हुई है। ऐसे बहुत कम उदाहरण मिलते हैं, जहां निर्माण करने वाले शिल्पकारों को भी सम्मान दिया गया हो। चित्तौडग़ढ़  विश्वप्रसिद्ध दुर्ग पर कला को तत्कालीन महाराणा ने सम्मान देते हुए  शिल्पकारों के नाम और मूर्तियां भी स्थापित की है । शिल्पी मंडन निर्दिष्ट यह प्रतिमा कीर्ति अथवा विजय स्तंभ में उत्कीर्ण है। जैसा निर्देश मंडन का था। उसको साकार कर दिखाया था। विजयस्तंभ के शिल्पी जयता और उसके पुत्र थै। उसने प्रयोग भी बहुत किए थे। जयता बहुत दक्ष शिल्पकार था। उसकी दक्षता को श्रेय देते हुए महाराणा कुंभा (1448 ई.) ने उसकी मूर्ति विजय स्तंभ में कुर्सी पर विराजित रूप में लगवाई थी। जो आज भी देखी जा सकती है। मूर्ति के समक्ष उनके पुत्रों के चित्र भी है। चित्तौडग़ढ़ के इतिहास पर कार्य रहे जिले के आकोला निवासी डा. श्रीकृष्ण जुगनू के अनुसार इस तरह का श्रेय बहुत कम शिल्पियों को मिला होगा। इसी तरह दुर्ग स्थित समिद्वेश्वर महादेव मंदिर जीर्णोद्घार का श...

राजस्थान का स्थापत्य - हवेली स्थापत्य

हवेली स्थापत्य राजस्थान की पहचान स्थापत्य कला से है एवं राजस्थान का स्थापत्य कुमावत समाज की देन है ।राजस्थान में बड़े-बड़े सेठ साहूकारों तथा धनी व्यक्तियों ने अपने निवास के लिये विशाल हवेलियों का निर्माण करवाया। ये हवेलियाँ कई मंजिला होती थी। शेखावाटी, ढूँढाड़, मारवाड़ तथा मेवाड़  क्षेत्रों की हवेलियाँ स्थापत्य की दृष्टि से भिन्नता लिए हुये हैं। शेखावाटी क्षेत्र की हवेलियाँ अधिक भव्य एवं कलात्मक है।  जयपुर, जैसलमेर, बीकानेर, तथा शेखावाटी के रामगढ़, नवलगढ़, फतहपुर, मुकु ंदगढ़, मण्डावा, पिलानी, सरदार शहर, रतनगढ़ आदि कस्बों में खड़ी विशाल हवेलियाँ आज भी अपने स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। राजस्थान की हवेलियाँ अपने छज्जों, बरामदों और झरोखें पर बारीक नक्काशी के लिए प्रसिद्ध हैं। जैसलमेर की हवेलियाँ राजपूताना के आकर्षण का केन्द्र रही है। यहाँ की पटवों की हवेली अपनी शिल्पकला, विशालता एवं अद्भुत नक्काशी के कारण प्रसिद्ध है।  यह पाँच मंजिला हवेली शहर के मध्य स्थित है। इस हवेली के जाली-झरोखें बरबस ही पर्यटक को आकर्षित करते हैं। पटवों की हवेली के अतिरिक...

राजस्थान का स्थापत्य -मन्दिर शिल्प

मन्दिर शिल्प का वास्तुविद मंडन शिल्पी  मन्दिर शिल्प की दृष्टि से राजस्थान अत्यन्त समृद्ध है तथा उत्तर भारत के मंदिर स्थापत्य के इतिहास में उसका विशिष्ट महत्त्व है। मंडन महाराणा कुंभा (1433-1468 ई.) का प्रधान सूत्रधार (वास्तुविद) तथा मूर्तिशास्त्री था। मंडन शिल्पी ने रूपमंडन और देवतामूर्ति प्रकरण ग्रन्थ की रचना कर इतिहास में सर्वप्रथम मूर्तिविधान की विवेचना प्रस्तुत की है। मंडन सूत्रधार केवल शास्त्रज्ञ ही न था, अपितु उसे वास्तुशास्त्र का प्रयोगात्मक अनुभव भी था। राजथान में सातवीं शताब्दी से पूर्व जो मन्दिर बने ,  दुर्भाग्य से उनके अवशेष ही प्राप्त होते हैं। यहाँ मन्दिरों के विकास का काल सातवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य रहा। यह वह काल था ,  जब राजस्थान में अनेक मन्दिर बने। इस काल में ही मन्दिरों की क्षेत्रीय शैलियाँ विकसित हुई। इस काल में विशाल एवं परिपूर्ण मन्दिरों का निर्माण हुआ। लगभग आठवीं शताब्दी से राजस्थान में जिस क्षेत्रीय शैली का विकास हुआ ,  गुर्जर-प्रतिहार अथवा महामारू कहा गया है। इस शैली के अन्तर्गत प्रारम्भिक निर्माण मण्डौर के प्रतिहारों ...

राजस्थान का स्थापत्य - राजप्रासाद एवं महल स्थापत्य

राजस्थान का स्थापत्य - राजप्रासाद एवं महल स्थापत्य  प्रमुख शिल्पी एवं वास्तुविद् हुए जिनमें मण्डन, नापा, भाणा, आदि प्रमुख हैं प्राचीन ग्रंथों में राजप्रासाद वास्तु का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। राजस्थान को इतिहास में ‘राजाओं के प्रदेश’ के नाम से भी जाना गया है। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक था कि राजा अपने रहने के विस्तृत आवास बनाते। दुर्भाग्य से अब राजस्थान के प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल की संधिकाल के राजप्रासादों के खण्डहर ही शेष रहे हैं । मेनाल, नागदा आदि स्थान के राजप्रासादों के खण्डहर यह बताते हैं कि वे सादगी युक्त थे। इनमें संकरे दरवाजे एवं खिड़कियों का अभाव है, जो सुरक्षा के कारणों से रखे गये हैं। मध्यकाल में राजप्रासाद विशाल, भव्य एवं अलंकृत बनने लगे। पूर्व मध्यकाल में अधिकांश राजप्रासाद किलों में ही देखने को मिलते हैं। इन राजप्रासादों में राजा एवं उसके परिवार के अतिरिक्त उसके बन्धु-बान्धव तथा अतिविशिष्ट नौकरशाही रहा करती थी। इस युग में भी कई वास्तुविद् हुए जिनमें मण्डन, नापा, भाणा, आदि प्रमुख हैं। कुम्भायुगीन प्रख्यात शिल्पी मण्डन का विचार है कि राजभव...

विश्व प्रसिद्ध हवामहल :- राजशिल्पी उस्ता लाल चंद कुमावत

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                                                                                       राजशिल्पी उस्ता लाल चंद कुमावत                             हवामहल की डिजाईन राजशिल्पी लालचंद उस्ता ने तैयार की थी हवामहल को निर्विरोध रूप से जयपुर का ग्लोबल सिंबल माना जाता है। दुनिया भर में हवामहल गुलाबी शहर की पहचान के रूप में विख्यात है। बड़ी चौपड़ से कुछ ही कदम चांदी की टकसाल की ओर चलने पर बांयी ओर खड़ी यही भव्य इमारत मुकुट की डिजाइन में बनी हुई है। यह पांच मंजिला शानदार इमारत दरअसल सिटी पैलेस के ’जनान-खाने’ यानि कि हरम का ही एक हिस्सा है। राजपरिवार की महिलाओं के लिए बनाए गए इस महल की यह पृष्ठ दीवार है जो सिरहड्योढी बाजार की ओर झांकती हुई है। इस खूबसूरत इमारत का निर्माण सन् 1799 में महाराजा सवाई प्र...

दयालबाग राधास्वामी सत्संग,आगरा

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दयालबाग आगरा  प्रमुख शिल्पी नारायण जी, आनंदी लाल करोडीवाल,  कन्हैयालाल जी सिरोहिया एवं भौरी लाल जी खोवाल दयालबाग की स्थापना राधास्वामी सत्संग के पांचवे संत सत्गुरु परम गुरु हुजूर साहब जी महाराज (सर आनन्द स्वरुप साहब) ने बसन्त पंचमी के दिन 20 जनवरी 1915 को की थी। स्वामीबाग़ समाधि हुजूर स्वामी जी महाराज (श्री शिव दयाल सिंह सेठ) का स्मारक/ समाधि है। यह आगरा के बाहरी क्षेत्र में है, जिसे स्वामी बाग कहते हैं। सन् 1908 ईस्वी में इसका निर्माण आरम्भ हुआ था , तब से आज तक कुमावत समाज के शिल्पकारो ने लगातार 100 वर्षों से भी अधिक समय तक इसके निर्माण मै जुटे हैं। इन शिल्पीयो मै प्रमुख नारायण जी आनंदी लाल करोडीवाल,  कन्हैयालाल जी सिरोहिया एवं भौरी लाल जी खोवाल रहे हैं। जिन्होंने हिन्दू वास्तुकला के अनुसार इसकी संकल्पना बनाकर निर्माण प्रारंभ किया,इन परिवारों के साथ ही अन्य समाज बंधुओं की पाचवी पीढ़ी आज यही निर्माण कार्य मै लगी है। सफेद संगमरमर पर खिलता कमल, बेल पर लटके अंगूर और अशोक की लहराती पत्तियां। आंखें इस कला को देखें तो दिमाग से जुबान के लिए यह संदेश आत...