मंगलवार, 28 मार्च 2017

जाति व्यवस्था एवं कुमावत

भारत में आर्य सभ्यता का विकास प्रारंभ हुआ,तब यह क्षेत्र आर्याव्रत कहलाया अफगानिस्तान से लेकर ब्रह्मा तक के इस क्षेत्र में राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में पितृसत्तामक परिवार के आधार पर बनने लगी।
इस युग में जीवन सुखी व खुशहाल बनाने के लिए समाज मे वर्ण व्यवस्था का सूत्रपात हुआ।, उत्तर वैदिक काल में राजतंत्र और राजाऔ के वर्चस्व में अत्यधिक वृद्धि और राजाओं का चयन वंशागुतक आधार पर होने लगे,और इसी दोर मे वंशवाद का सूत्रपात हुआ। सामाजिक व्यवस्था के सूत्रपात के लिए व्यवहार शास्त्र का प्रारंभ हुआ,और इसी कारण आर्य सभ्यता का वैदिक काल भारतीय सभ्यता का विकास काल करवाया गया।
        प्राचीन भारत में जातिय व्यवस्था नही थी,बल्कि वर्ण व्यवस्था प्रचिलित थी,समाज चार भागो मे विभाजित था। वर्णो का निर्धारण कर्म के आधार पर आधारित था। जो जेसा कर्म करता था व उसा वर्ण में माना जाता था। वर्तमान जाति व्यवस्था प्राचीन वर्ण व्यवस्था का ही परिवर्तित स्वरूप है।प्रारंभिक सामाजिक व्यवस्था को कालांतर में धार्मिक संबल भी प्राप्त हो गया और जाति व्यवस्था सुदृढ़ होती गई,कालांतर में जाति व्यवस्था को समाप्त करने के कई प्रयास हुए बोद्ध दलित एवम् महिलाओं को दीक्षित कर इस व्यवस्था को समाप्त करने का प्रयास किया गया,किन्तु भारतीय समाज में जातिय व्यवस्था की जडे इतनी गहरी हो चूकी थी। कि उन्हें उखाडा नही जा सका,गुप्त काल में जाति व्यवस्था अपने योवन पर थी।
        भारतीय समाज में जाति व्यवस्था इतनी मजबूत है। कि विभिन्न सामाजिक सुधार आनंदित एव आधुनिक विचारों के प्रचार प्रसार के बावजूद भारतीय समाज से जाति व्यवस्था की जडो से मुक्त नहीं किया जा सका। बल्कि उत्तरोतर वृद्धि और मजबूत होती रही, यहा तक की भारत के संविधान निर्माताओं को भी संविधान निर्माण के समय इस जाति व्यवस्था का विशेष ध्यान रखना पड़ा। वर्तमान में भी तो भारतीय राजनीति पूरी तरह जातिय समिकरणो मे जकड चूकी है। तथा इसमे और वृद्धि हो रही है,भारतीय समाज मे जातियों के उदभव की और दृष्टि डाले तो हमे ग्यात होता है। कि अपने उदभव काल में जातियाँ सामाजिक और प्रशिक्षण कर्ता हुआ करती थी। उनका गठन कर्म के आधार पर हुआ था। कुछ जातियाँ अपनी तकनीकी ग्यान एक पिंडी से दुसरी पिंडी को हस्तांतरित करती रहती थी। आज की कुम्हार,सुथार,सुनार,नाई, न सिलावट राज मिस्त्री,गजधर आदि (कुमावत)ये वो जातियाँ जो वंशागुत कार्यो के हस्तांतरण का विकसित रूप है। कुछ अपने ग्यान एवम् कर्म के बल पर बनी है,पर आज सभी जातियो का आधार जन्मजात हो गया है।
     कुमावत समाज का वर्तमान स्वरूप हजारो वर्षों के सामाजिक परिवर्तन एवं परिस्थिति जन अस्तित्व निर्माण शैली,वास्तु के सृजन का परिष्कृत रूप है। जिस प्रकार अन्य जातियाँ अपने कर्म के अनुसार जानी गई,कुमावत जाति भी अपने कर्म के आधार पर जानी जाती है। देश काल एवं स्थानीय अलग अलग परिस्थितियों के कारण इस जाति को अलग अलग नामो से जाना जाता रहा है। जेसे राज,राजगीर,राजमिस्त्री,उस्ता,जैजारा,गवंडी,परदेशी,नाईक,राजकुमार,राजकुमावत,कुमावत पर इन सबका कर्म भवन निर्माण व खेती रहा है।
           

कुमावत जाति एवं प्राचीन पहचान

कुमावत समाज के अस्तित्व को लेकर कई तरह की मिथ्या धारणाऐ प्रचलित हैं।राजनेतिक वर्चस्व की लड़ाई में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए कुछ लोग दुसरी जाति का हिस्सा बता कर इसके अस्तित्व को ही समाप्त करने का प्रयास कर रहे हैं,जो इस जाति जाति के साथ कुछ लोगों का खिलवाड़ मात्र है।
राजस्थान ही नही अन्य राज्यों में यह समाज जहाँ भी निवास करती है,समूह के रूप में निवास करती है। दुसरी जाति की तरह नही जिसके हर गाँव में एक दो घर मिल जायेगे। क्योंकि कर्म के आधार पर वह जाति प्रत्येक गाँव में पाई जाती है। किन्तु कुमावत जाति अपने सृजन कार्यो के लिए समूह के रूप में निवास करते रहे हैं। उसका कारण भी रहा है,देश काल में राजा,रजवाडो,सेठ साहूकारो के गढ महल,किले,हवेलियो,का निर्माण हो या जलाशयो का उनके सृजन के लिए कई कारीगरो की आवश्यकता होती थी,इस लिए कुमावत समूह के रूप में जाकर उस कार्य को पूर्ण करते थे,जो वर्षों चलता था, इस कारण कुछ वही रूक जाते थे,तथा शेष नवसृजन के लिए अन्य स्थानों पर रवाना हो जाते थे। इसी कारण कुमावत समाज वही है जहाँ गढ महल किले हवेलि या है, या खेती से सम्पन्न धरा है,जहा भी है अच्छी संख्या में है,यह इस बात का प्रमाण है,
    कुमावत जाति के बारे में अलग अलग समय पर अलग अलग विचार सामने आये है। कुछ लोग इसके लिए कहते हैं,सवत् 1313  मे जैसलमेर के संत गरवा जी महाराज द्वारा उस समय की तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए युद्ध काल मे मारे गए सेनिको की विधवाओं की दशा देख कर उनके उत्थान के लिए राजपूतो मे नाता प्रथा प्रारंभ करवाई थी। और जिन राजपूतो ने नाता प्रथा स्वीकार की  उनसे नये पंथ की स्थापना की जो कुमावत कहलाये, मे इस पंथ को स्वीकार भी कर लू,क्योंकि कुमावत समाज मे नाता प्रथा है,पर  पर हनुमान दान राव द्वारा लिखित इतिहास ही इसको नही मानने के लिए बाध्य कर रहा है,एक सवत् 1313 में जैसलमेर के राजा कैहर नही मूलराज थे, अलाउदीन खिलजी से राजा कैहर का युद्ध ना होकर मूलरज से हुआ था, दुसरा 1313 मे मूल राज व अलाउदीन खिलजी से चार साल तक युद्ध होने पर किले में रसद सामग्री समाप्त होने पर वहा की विरांगनाऔ ने जौहर किया था,न सेनिक युद्ध करने किले से बाहर निकल गये थे जो जैसलमेर के इतिहास में प्रथम साके के नाम से दर्ज है जिसमे ग्यारह हजार विरगंनाऔ ने जोहर किया था, फिर कोनसी विधवाऐ रह गई,वही इस किताब को लिखने वाला राव जिस इलाके को जाचता रहा उस इलाके के लोग अपने आप को कुम्हार मानते रहे और आज भी अपने आप को कुम्हार मानने मे गर्व करते हैं,वही दुसरी विचार धारा ठीक प्रतित होती है,
कुमावत नाम प्रचलन से पूर्व इस जाति को सलावट, कारू,कारीगर गजधर,उस्ता मिस्त्री,राजमिस्त्री,राजगीर संतरास नाईक गवंडी परदेशी बेलदार, आदि नामो से जाना जाता था। जो इस जाति के कर्म के अनुसार उचित भी है, आदिकाल से ही यह जाति भवन निर्माण कला,वास्तुकला की सृजन कर्ता रही है,आर्य सभ्यता हो चाहे मोर्य काल गुहकाल,हो चाहे चाहे सतयुग ही क्यो ना हो इस जाति की वास्तु कला निर्माण कला,मुर्ति कला,या चित्रकारी पर एकाधिकार रहा है,इसी कारण जाति को विश्वकर्मा का दर्जा प्राप्त है,क्योंकि इस जाति का कर्म है वह दो चार सो सालो की साधना नही है। आदिकाल की साधना के दम पर ही इस जाति को वास्तुकला या स्थापत्य निर्माण कला का सृजन कर्ता रही गया है। जो आदिकाल से ही किसी भी सभ्यता मे देखा जा सकता है,इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। आर्य सभ्यता हो चाहे वैदिक काल चाहे मध्यकालीन युग इस जाति के महत्व से कोई इंकार नहीं कर सकता, पर आज जिस नाम से इस जाति को जाना जाता है,वह नाम इतिहास के अनुसार महाराणा कुंभा द्वारा इस जाति को दिया गया प्रमाणित होता है। जो मैवाड की सेवाऔ के बदले चितोडगढ,कुम्भलगढ,आदि दुर्ग मे निर्माण रचना की गई तथा गुजरात के सुलतान पर विजय को चिरस्थाई बनाने के लिए विजय स्तंभ रखा निर्माण पुर्ण होने पर संवत् 1448 मे राम नवमी के दिन अपने दरबार में आमंत्रित राज शिल्पीयो को सम्बन्धित करते हुए कहा था, हे कुमावतो... कु यानि धरती मा यानि माता अत यानि इसके सतत् रक्षक .. यानि मैवाड की धरा के वास्तव में असली रक्षक आप हो आप यहाँ शिल्प सृजन के लिए कई नामो से जाने जाने के बावजूद सृजन कर्ता के रूप में आये हो, पर हो वास्तव में कुमावत

    कर्मस

कुमावत - संदर्भ

कुमावत जाति के वंशजों और उनके द्वारा निर्मित ऐतिहासिक धरोहरो के बारे मै प्रमाणिक और प्रभूत साक्ष्यों की बहुत बड़ी कमी रहने के बावजूद भारत के विभिन्न प्रांतो के नगरीय व ग्रामीण क्षेत्र मै रहे बसे कुमावत समाज के कतिपय महानुभावो, और विशेषकर जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर, बाडमेर, जालोर, सिरोही, पाली, राजसमंद, उदयपुर, चितौडगढ, भीलवाड़ा, टोक, अजमेर, आबू, सीकर, भीलवाड़ा, ब्यावर, पुष्कर, दिल्ली, भोपाल, अहमदाबाद, श्री गंगानगर, सुरत, पुणे, भिवानी, बडौदा,औरंगाबाद, रतलाम, उज्जैन, इन्दौर, के लोगो से,अपने शोध मै व्यक्तिगत, या मेल, के दवारा  सरकारी प्रशनावली संदर्भ ग्रंथो, सरकारी दस्तावेज  राजवंशो के पोथी खाने  आदि राव भाटो की पोथियो आदि दस्तावेजों  के माध्यम से जो जान पाया, और समझ सका वह निरपेक्ष रूप से आपके कर किलो मै अर्पित है।निःसंदेह मै इस तथ्य को स्वीकार करता हू।कि लेखन एक निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया है।वह कोई अंतिम निर्णय नही है।जेसे जेसे शोध की परते खुलती जाती है।इसमे आवश्यक संशोधन जरूरी होते जाते है।कोई भी इतिहास वेता और इतिहास लेखक इस बात का दावा नही कर सकता,कि जो कुछ उसने लिखा है। वही अंतिम सत्य है।यही एक मात्र सही विवेचना है। शोध की, शोध के आयाम विविध और व्यापक होते है।और नवीन बातो के प्रकाश मै आने से आवश्यक संशोधन स्वीकार करना लेखक की अवधारणा का मूल है।कुमावत समाज के इतिहास को लेकर अन्य कई लोगो ने इतिहास लिखकर प्रकाश डाला है। और भी लिखा जा सकता है। किंतु मेने इस जाति की परंपरागत पहचान उसकी युगायुगीन शिल्प साधना और स्थापत्य निर्माण शैली पर विशेष धयान दिया है। इस लेखक मै उन तमाम बिंदुऔ  का धयान आकर्षित करने की कोशिश की है। जो इस जाति की संस्कृति, परंपरा, रिति रिवाजों, व वयवसायीयो से जुडी है।  इस लेखन के लिखने मै सहयोग करने वाले व्यक्तियो,संस्थाऔ,एजेंसी,संदर्भ ग्रंथो,शासकीय, व गेर शासकीय,प्रकाशन के प्रति, राजस्थान,पत्रिका, दैनिक भास्कर, पंजाब केसरी,  व्यय गूगल का अपनी कृतज्ञता करता हू।जिसके कारण मै समाज की इतनी जानकारी पा सका,  प्रस्तुत लेखन को पुर्ण करने मै मुझे अनेक विद्वानो,लेखको,कार सहयोग मिला उनका भी दिल से आभारी हू।