भारत में आर्य सभ्यता का विकास प्रारंभ हुआ,तब यह क्षेत्र आर्याव्रत कहलाया अफगानिस्तान से लेकर ब्रह्मा तक के इस क्षेत्र में राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में पितृसत्तामक परिवार के आधार पर बनने लगी।
इस युग में जीवन सुखी व खुशहाल बनाने के लिए समाज मे वर्ण व्यवस्था का सूत्रपात हुआ।, उत्तर वैदिक काल में राजतंत्र और राजाऔ के वर्चस्व में अत्यधिक वृद्धि और राजाओं का चयन वंशागुतक आधार पर होने लगे,और इसी दोर मे वंशवाद का सूत्रपात हुआ। सामाजिक व्यवस्था के सूत्रपात के लिए व्यवहार शास्त्र का प्रारंभ हुआ,और इसी कारण आर्य सभ्यता का वैदिक काल भारतीय सभ्यता का विकास काल करवाया गया।
प्राचीन भारत में जातिय व्यवस्था नही थी,बल्कि वर्ण व्यवस्था प्रचिलित थी,समाज चार भागो मे विभाजित था। वर्णो का निर्धारण कर्म के आधार पर आधारित था। जो जेसा कर्म करता था व उसा वर्ण में माना जाता था। वर्तमान जाति व्यवस्था प्राचीन वर्ण व्यवस्था का ही परिवर्तित स्वरूप है।प्रारंभिक सामाजिक व्यवस्था को कालांतर में धार्मिक संबल भी प्राप्त हो गया और जाति व्यवस्था सुदृढ़ होती गई,कालांतर में जाति व्यवस्था को समाप्त करने के कई प्रयास हुए बोद्ध दलित एवम् महिलाओं को दीक्षित कर इस व्यवस्था को समाप्त करने का प्रयास किया गया,किन्तु भारतीय समाज में जातिय व्यवस्था की जडे इतनी गहरी हो चूकी थी। कि उन्हें उखाडा नही जा सका,गुप्त काल में जाति व्यवस्था अपने योवन पर थी।
भारतीय समाज में जाति व्यवस्था इतनी मजबूत है। कि विभिन्न सामाजिक सुधार आनंदित एव आधुनिक विचारों के प्रचार प्रसार के बावजूद भारतीय समाज से जाति व्यवस्था की जडो से मुक्त नहीं किया जा सका। बल्कि उत्तरोतर वृद्धि और मजबूत होती रही, यहा तक की भारत के संविधान निर्माताओं को भी संविधान निर्माण के समय इस जाति व्यवस्था का विशेष ध्यान रखना पड़ा। वर्तमान में भी तो भारतीय राजनीति पूरी तरह जातिय समिकरणो मे जकड चूकी है। तथा इसमे और वृद्धि हो रही है,भारतीय समाज मे जातियों के उदभव की और दृष्टि डाले तो हमे ग्यात होता है। कि अपने उदभव काल में जातियाँ सामाजिक और प्रशिक्षण कर्ता हुआ करती थी। उनका गठन कर्म के आधार पर हुआ था। कुछ जातियाँ अपनी तकनीकी ग्यान एक पिंडी से दुसरी पिंडी को हस्तांतरित करती रहती थी। आज की कुम्हार,सुथार,सुनार,नाई, न सिलावट राज मिस्त्री,गजधर आदि (कुमावत)ये वो जातियाँ जो वंशागुत कार्यो के हस्तांतरण का विकसित रूप है। कुछ अपने ग्यान एवम् कर्म के बल पर बनी है,पर आज सभी जातियो का आधार जन्मजात हो गया है।
कुमावत समाज का वर्तमान स्वरूप हजारो वर्षों के सामाजिक परिवर्तन एवं परिस्थिति जन अस्तित्व निर्माण शैली,वास्तु के सृजन का परिष्कृत रूप है। जिस प्रकार अन्य जातियाँ अपने कर्म के अनुसार जानी गई,कुमावत जाति भी अपने कर्म के आधार पर जानी जाती है। देश काल एवं स्थानीय अलग अलग परिस्थितियों के कारण इस जाति को अलग अलग नामो से जाना जाता रहा है। जेसे राज,राजगीर,राजमिस्त्री,उस्ता,जैजारा,गवंडी,परदेशी,नाईक,राजकुमार,राजकुमावत,कुमावत पर इन सबका कर्म भवन निर्माण व खेती रहा है।
इस युग में जीवन सुखी व खुशहाल बनाने के लिए समाज मे वर्ण व्यवस्था का सूत्रपात हुआ।, उत्तर वैदिक काल में राजतंत्र और राजाऔ के वर्चस्व में अत्यधिक वृद्धि और राजाओं का चयन वंशागुतक आधार पर होने लगे,और इसी दोर मे वंशवाद का सूत्रपात हुआ। सामाजिक व्यवस्था के सूत्रपात के लिए व्यवहार शास्त्र का प्रारंभ हुआ,और इसी कारण आर्य सभ्यता का वैदिक काल भारतीय सभ्यता का विकास काल करवाया गया।
प्राचीन भारत में जातिय व्यवस्था नही थी,बल्कि वर्ण व्यवस्था प्रचिलित थी,समाज चार भागो मे विभाजित था। वर्णो का निर्धारण कर्म के आधार पर आधारित था। जो जेसा कर्म करता था व उसा वर्ण में माना जाता था। वर्तमान जाति व्यवस्था प्राचीन वर्ण व्यवस्था का ही परिवर्तित स्वरूप है।प्रारंभिक सामाजिक व्यवस्था को कालांतर में धार्मिक संबल भी प्राप्त हो गया और जाति व्यवस्था सुदृढ़ होती गई,कालांतर में जाति व्यवस्था को समाप्त करने के कई प्रयास हुए बोद्ध दलित एवम् महिलाओं को दीक्षित कर इस व्यवस्था को समाप्त करने का प्रयास किया गया,किन्तु भारतीय समाज में जातिय व्यवस्था की जडे इतनी गहरी हो चूकी थी। कि उन्हें उखाडा नही जा सका,गुप्त काल में जाति व्यवस्था अपने योवन पर थी।
भारतीय समाज में जाति व्यवस्था इतनी मजबूत है। कि विभिन्न सामाजिक सुधार आनंदित एव आधुनिक विचारों के प्रचार प्रसार के बावजूद भारतीय समाज से जाति व्यवस्था की जडो से मुक्त नहीं किया जा सका। बल्कि उत्तरोतर वृद्धि और मजबूत होती रही, यहा तक की भारत के संविधान निर्माताओं को भी संविधान निर्माण के समय इस जाति व्यवस्था का विशेष ध्यान रखना पड़ा। वर्तमान में भी तो भारतीय राजनीति पूरी तरह जातिय समिकरणो मे जकड चूकी है। तथा इसमे और वृद्धि हो रही है,भारतीय समाज मे जातियों के उदभव की और दृष्टि डाले तो हमे ग्यात होता है। कि अपने उदभव काल में जातियाँ सामाजिक और प्रशिक्षण कर्ता हुआ करती थी। उनका गठन कर्म के आधार पर हुआ था। कुछ जातियाँ अपनी तकनीकी ग्यान एक पिंडी से दुसरी पिंडी को हस्तांतरित करती रहती थी। आज की कुम्हार,सुथार,सुनार,नाई, न सिलावट राज मिस्त्री,गजधर आदि (कुमावत)ये वो जातियाँ जो वंशागुत कार्यो के हस्तांतरण का विकसित रूप है। कुछ अपने ग्यान एवम् कर्म के बल पर बनी है,पर आज सभी जातियो का आधार जन्मजात हो गया है।
कुमावत समाज का वर्तमान स्वरूप हजारो वर्षों के सामाजिक परिवर्तन एवं परिस्थिति जन अस्तित्व निर्माण शैली,वास्तु के सृजन का परिष्कृत रूप है। जिस प्रकार अन्य जातियाँ अपने कर्म के अनुसार जानी गई,कुमावत जाति भी अपने कर्म के आधार पर जानी जाती है। देश काल एवं स्थानीय अलग अलग परिस्थितियों के कारण इस जाति को अलग अलग नामो से जाना जाता रहा है। जेसे राज,राजगीर,राजमिस्त्री,उस्ता,जैजारा,गवंडी,परदेशी,नाईक,राजकुमार,राजकुमावत,कुमावत पर इन सबका कर्म भवन निर्माण व खेती रहा है।