कुमावत समाज के अस्तित्व को लेकर कई तरह की मिथ्या धारणाऐ प्रचलित हैं।राजनेतिक वर्चस्व की लड़ाई में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए कुछ लोग दुसरी जाति का हिस्सा बता कर इसके अस्तित्व को ही समाप्त करने का प्रयास कर रहे हैं,जो इस जाति जाति के साथ कुछ लोगों का खिलवाड़ मात्र है।
राजस्थान ही नही अन्य राज्यों में यह समाज जहाँ भी निवास करती है,समूह के रूप में निवास करती है। दुसरी जाति की तरह नही जिसके हर गाँव में एक दो घर मिल जायेगे। क्योंकि कर्म के आधार पर वह जाति प्रत्येक गाँव में पाई जाती है। किन्तु कुमावत जाति अपने सृजन कार्यो के लिए समूह के रूप में निवास करते रहे हैं। उसका कारण भी रहा है,देश काल में राजा,रजवाडो,सेठ साहूकारो के गढ महल,किले,हवेलियो,का निर्माण हो या जलाशयो का उनके सृजन के लिए कई कारीगरो की आवश्यकता होती थी,इस लिए कुमावत समूह के रूप में जाकर उस कार्य को पूर्ण करते थे,जो वर्षों चलता था, इस कारण कुछ वही रूक जाते थे,तथा शेष नवसृजन के लिए अन्य स्थानों पर रवाना हो जाते थे। इसी कारण कुमावत समाज वही है जहाँ गढ महल किले हवेलि या है, या खेती से सम्पन्न धरा है,जहा भी है अच्छी संख्या में है,यह इस बात का प्रमाण है,
कुमावत जाति के बारे में अलग अलग समय पर अलग अलग विचार सामने आये है। कुछ लोग इसके लिए कहते हैं,सवत् 1313 मे जैसलमेर के संत गरवा जी महाराज द्वारा उस समय की तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए युद्ध काल मे मारे गए सेनिको की विधवाओं की दशा देख कर उनके उत्थान के लिए राजपूतो मे नाता प्रथा प्रारंभ करवाई थी। और जिन राजपूतो ने नाता प्रथा स्वीकार की उनसे नये पंथ की स्थापना की जो कुमावत कहलाये, मे इस पंथ को स्वीकार भी कर लू,क्योंकि कुमावत समाज मे नाता प्रथा है,पर पर हनुमान दान राव द्वारा लिखित इतिहास ही इसको नही मानने के लिए बाध्य कर रहा है,एक सवत् 1313 में जैसलमेर के राजा कैहर नही मूलराज थे, अलाउदीन खिलजी से राजा कैहर का युद्ध ना होकर मूलरज से हुआ था, दुसरा 1313 मे मूल राज व अलाउदीन खिलजी से चार साल तक युद्ध होने पर किले में रसद सामग्री समाप्त होने पर वहा की विरांगनाऔ ने जौहर किया था,न सेनिक युद्ध करने किले से बाहर निकल गये थे जो जैसलमेर के इतिहास में प्रथम साके के नाम से दर्ज है जिसमे ग्यारह हजार विरगंनाऔ ने जोहर किया था, फिर कोनसी विधवाऐ रह गई,वही इस किताब को लिखने वाला राव जिस इलाके को जाचता रहा उस इलाके के लोग अपने आप को कुम्हार मानते रहे और आज भी अपने आप को कुम्हार मानने मे गर्व करते हैं,वही दुसरी विचार धारा ठीक प्रतित होती है,
कुमावत नाम प्रचलन से पूर्व इस जाति को सलावट, कारू,कारीगर गजधर,उस्ता मिस्त्री,राजमिस्त्री,राजगीर संतरास नाईक गवंडी परदेशी बेलदार, आदि नामो से जाना जाता था। जो इस जाति के कर्म के अनुसार उचित भी है, आदिकाल से ही यह जाति भवन निर्माण कला,वास्तुकला की सृजन कर्ता रही है,आर्य सभ्यता हो चाहे मोर्य काल गुहकाल,हो चाहे चाहे सतयुग ही क्यो ना हो इस जाति की वास्तु कला निर्माण कला,मुर्ति कला,या चित्रकारी पर एकाधिकार रहा है,इसी कारण जाति को विश्वकर्मा का दर्जा प्राप्त है,क्योंकि इस जाति का कर्म है वह दो चार सो सालो की साधना नही है। आदिकाल की साधना के दम पर ही इस जाति को वास्तुकला या स्थापत्य निर्माण कला का सृजन कर्ता रही गया है। जो आदिकाल से ही किसी भी सभ्यता मे देखा जा सकता है,इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। आर्य सभ्यता हो चाहे वैदिक काल चाहे मध्यकालीन युग इस जाति के महत्व से कोई इंकार नहीं कर सकता, पर आज जिस नाम से इस जाति को जाना जाता है,वह नाम इतिहास के अनुसार महाराणा कुंभा द्वारा इस जाति को दिया गया प्रमाणित होता है। जो मैवाड की सेवाऔ के बदले चितोडगढ,कुम्भलगढ,आदि दुर्ग मे निर्माण रचना की गई तथा गुजरात के सुलतान पर विजय को चिरस्थाई बनाने के लिए विजय स्तंभ रखा निर्माण पुर्ण होने पर संवत् 1448 मे राम नवमी के दिन अपने दरबार में आमंत्रित राज शिल्पीयो को सम्बन्धित करते हुए कहा था, हे कुमावतो... कु यानि धरती मा यानि माता अत यानि इसके सतत् रक्षक .. यानि मैवाड की धरा के वास्तव में असली रक्षक आप हो आप यहाँ शिल्प सृजन के लिए कई नामो से जाने जाने के बावजूद सृजन कर्ता के रूप में आये हो, पर हो वास्तव में कुमावत
कर्मस
राजस्थान ही नही अन्य राज्यों में यह समाज जहाँ भी निवास करती है,समूह के रूप में निवास करती है। दुसरी जाति की तरह नही जिसके हर गाँव में एक दो घर मिल जायेगे। क्योंकि कर्म के आधार पर वह जाति प्रत्येक गाँव में पाई जाती है। किन्तु कुमावत जाति अपने सृजन कार्यो के लिए समूह के रूप में निवास करते रहे हैं। उसका कारण भी रहा है,देश काल में राजा,रजवाडो,सेठ साहूकारो के गढ महल,किले,हवेलियो,का निर्माण हो या जलाशयो का उनके सृजन के लिए कई कारीगरो की आवश्यकता होती थी,इस लिए कुमावत समूह के रूप में जाकर उस कार्य को पूर्ण करते थे,जो वर्षों चलता था, इस कारण कुछ वही रूक जाते थे,तथा शेष नवसृजन के लिए अन्य स्थानों पर रवाना हो जाते थे। इसी कारण कुमावत समाज वही है जहाँ गढ महल किले हवेलि या है, या खेती से सम्पन्न धरा है,जहा भी है अच्छी संख्या में है,यह इस बात का प्रमाण है,
कुमावत जाति के बारे में अलग अलग समय पर अलग अलग विचार सामने आये है। कुछ लोग इसके लिए कहते हैं,सवत् 1313 मे जैसलमेर के संत गरवा जी महाराज द्वारा उस समय की तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए युद्ध काल मे मारे गए सेनिको की विधवाओं की दशा देख कर उनके उत्थान के लिए राजपूतो मे नाता प्रथा प्रारंभ करवाई थी। और जिन राजपूतो ने नाता प्रथा स्वीकार की उनसे नये पंथ की स्थापना की जो कुमावत कहलाये, मे इस पंथ को स्वीकार भी कर लू,क्योंकि कुमावत समाज मे नाता प्रथा है,पर पर हनुमान दान राव द्वारा लिखित इतिहास ही इसको नही मानने के लिए बाध्य कर रहा है,एक सवत् 1313 में जैसलमेर के राजा कैहर नही मूलराज थे, अलाउदीन खिलजी से राजा कैहर का युद्ध ना होकर मूलरज से हुआ था, दुसरा 1313 मे मूल राज व अलाउदीन खिलजी से चार साल तक युद्ध होने पर किले में रसद सामग्री समाप्त होने पर वहा की विरांगनाऔ ने जौहर किया था,न सेनिक युद्ध करने किले से बाहर निकल गये थे जो जैसलमेर के इतिहास में प्रथम साके के नाम से दर्ज है जिसमे ग्यारह हजार विरगंनाऔ ने जोहर किया था, फिर कोनसी विधवाऐ रह गई,वही इस किताब को लिखने वाला राव जिस इलाके को जाचता रहा उस इलाके के लोग अपने आप को कुम्हार मानते रहे और आज भी अपने आप को कुम्हार मानने मे गर्व करते हैं,वही दुसरी विचार धारा ठीक प्रतित होती है,
कुमावत नाम प्रचलन से पूर्व इस जाति को सलावट, कारू,कारीगर गजधर,उस्ता मिस्त्री,राजमिस्त्री,राजगीर संतरास नाईक गवंडी परदेशी बेलदार, आदि नामो से जाना जाता था। जो इस जाति के कर्म के अनुसार उचित भी है, आदिकाल से ही यह जाति भवन निर्माण कला,वास्तुकला की सृजन कर्ता रही है,आर्य सभ्यता हो चाहे मोर्य काल गुहकाल,हो चाहे चाहे सतयुग ही क्यो ना हो इस जाति की वास्तु कला निर्माण कला,मुर्ति कला,या चित्रकारी पर एकाधिकार रहा है,इसी कारण जाति को विश्वकर्मा का दर्जा प्राप्त है,क्योंकि इस जाति का कर्म है वह दो चार सो सालो की साधना नही है। आदिकाल की साधना के दम पर ही इस जाति को वास्तुकला या स्थापत्य निर्माण कला का सृजन कर्ता रही गया है। जो आदिकाल से ही किसी भी सभ्यता मे देखा जा सकता है,इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। आर्य सभ्यता हो चाहे वैदिक काल चाहे मध्यकालीन युग इस जाति के महत्व से कोई इंकार नहीं कर सकता, पर आज जिस नाम से इस जाति को जाना जाता है,वह नाम इतिहास के अनुसार महाराणा कुंभा द्वारा इस जाति को दिया गया प्रमाणित होता है। जो मैवाड की सेवाऔ के बदले चितोडगढ,कुम्भलगढ,आदि दुर्ग मे निर्माण रचना की गई तथा गुजरात के सुलतान पर विजय को चिरस्थाई बनाने के लिए विजय स्तंभ रखा निर्माण पुर्ण होने पर संवत् 1448 मे राम नवमी के दिन अपने दरबार में आमंत्रित राज शिल्पीयो को सम्बन्धित करते हुए कहा था, हे कुमावतो... कु यानि धरती मा यानि माता अत यानि इसके सतत् रक्षक .. यानि मैवाड की धरा के वास्तव में असली रक्षक आप हो आप यहाँ शिल्प सृजन के लिए कई नामो से जाने जाने के बावजूद सृजन कर्ता के रूप में आये हो, पर हो वास्तव में कुमावत
कर्मस
5 टिप्पणियां:
Hello bhai koi kumawat samaj ki koi acha sa ithaas ho to bhejo meri email id Mahendra885288@gmil.com
8778731545 contact me
बिखरे हुए कुमावत समाज के लोगों को एक करने उनकी पहचान बनाने के लिए भी प्रयास होने चाहिये🙏
जय कुमावात समाज
जय कुमावात समाज
nice knowledge
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