शनिवार, 25 जून 2016

चितौड़गढ़ मे कुमावत जाति के द्वारा स्थापत्य सृजन

चितौड़ मे निर्माण कार्य का दुर्ग में प्रमुख रूप से निम्न प्रकार था।  श़ृंगार चंवरी कुम्भ श्याम, कीर्ति स्तम्भ,सतबीस देवरी,और गौमुख,का इलाका,इसमे कुंभा के महल भी सम्मिलित हैं। राजमहल होने से यह सबसे प्रभावशाली स्थान रहा प्रतित होता है। २ दुसरा महत्वपूर्ण इलाका कुकडेश्वर मंदिर अन्नपूर्णा मंदिर माता का कुण्ड का भाग है। जो 8वी शताब्दी के आसपास उन्नत अवस्था में था 3 सूर्य कुण्ड सूर्य मंदिर आदि का भाग और चोथा भाग जैन कीर्ति स्तम्भ नील कंठ मंदिर तक का भाग हो सकता है! यही मोटे तौर पर चोथे भाग को पहले के साथ देखा जा सकता है! दुर्ग बनने के साथ भवनो व मंदिरो का निर्माण का क्रम जारी रहा प्रतित होता है। क्योंकि 8वी  शताब्दी के भवनों के अवशेष आज भी विद्यमान है। इस समय के वास्तु शिल्पीयो के नाम तो इन अवशेषो में पाये नही गये। किन्तु जिस शैली में यह निर्माण सतत् जारी रहा उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है! कि 8वी सदी के निर्माण शिल्पी भी आज के कुमावत ही रहे हैं। भले ही उन्हें सलावट जाति के नाम से जाना जाता रहा हो, दुर्ग पर परमार और सोलंकियो के अधिकार काल में कुछ जैन मंदिर व वैष्णव मंदिर बनना ग्यात हुआ है। जैन अनुशृरुतियो से हरिभ्रद सुरी के समय भी यही जैन मंदिर का होना बताया गया है। यहा समरसिहं के शासनकाल में बहुत विकास हुआ इस काल में भवन निर्माण शिल्पकारो का बडा सम्मान होना उल्लेखनीय है। पर अलाउदीन खिलजी के समय यही के वैभवशाली मंदिरो,भवनो को तहस नहस कर दिया गया, कई शिल्प सृजन की  धरोहरो का नाम ही खत्म कर दिया गया, इसी के साथ उन शिल्पकारो का उल्लेख भी मीटा दिया गया, पर जो अवशेष हैं। वह उनकी अनूठी मिसाल है। चित्तोड मे निर्माण कार्य का दुसरा क्रम समीर से शुरू होता है। जो कुंभा से रायमल के शासनकाल काल तक चलता रहा। इस काल मै महाराणा कुंभा का शासनकाल काल मैवाड के इतिहास में स्वर्ण युग कहा जा सकता है! कुमावत जाति के इतिहास में भी इस काल को स्वर्ण युग माना जा सकता है! इस काल मै कुमावत जाति मै अनेक वास्तु शिल्पीयो का जन्म हुआ। जिन्होंने मैवाड की धरती पर अनेक ऐतिहासिक धरोहरो का निर्माण किया था।  कुंभा के शासनकाल में चित्तोड मे लगभग सभी भग्नमंदिरो को नये  ढंग से बनाया गया। जलाशयो का जीर्णोद्धार किया गया ,दुर्ग की प्राचीरो रक्षापंक्तियों को मजबूत बनया गया  यही नही आने जाने के मार्गों को सुगम व सुरक्षित बनाया गया। यह काम कुमावत कारीगरो ने बड़े ही लग्न और वास्तु शास्त्र के अनुसार कर कुमावत जाति का इतिहास में गोरव बढ़ाया, यह क्रम सांगा और रतन सिंह के शासनकाल काल तक चलता रहा पर बाहदूरशाह के आक्रमण के साथ ही रूक गया  इसके बाद मुगलो से संधि के बाद चालू हुआ। पर जो काम महाराणा कुंभा के शासनकाल में हुआ तथा तब जो सम्मान वास्तु शिल्पीयो को प्राप्त था।  उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।  वास्तु शिल्पीयो को सम्मान तो 8 वी सदी से मिलता रहा है। पर कुंभा के शासनकाल में शिल्पीयो को सांमतो के समान दर्जा दिया गया I

चितौड़गढ़ : निर्माण के इतिहास में कुमावत शिल्पीयो का योगदान

महान वास्तुकार मंडन के दुसरे पुत्र ईश्वर का उल्लेख जावरा की वि स 1554 की प्रशस्ति मै है। उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित अप्रकाशित खरतरगच्छ के एक लेख में ईश्वर के पुत्र छीतर का उल्लेख है यही उल्लेखित खेता खनारिया के दो पुत्र मंडन व नाथा मंडन के दो पुत्र गोविन्द व ईश्वर ईश्वर के पुत्र छीतर इसी तरह कुम्भा के समकालीन एक उल्लेखनीय परिवार का वर्णन है। वास्तु शास्त्र व भवन निर्माण के शिल्पकार लाखा के पुत्र जैता मंडावरा व उसका भाई नारद  जिसका उल्लेख वि स 1495 की चित्तोड की महवीर प्रसाद प्रशस्ति मै हो रहा है। इस परिवार के कई लेख मिले है, जिनमें इस परिवार के द्वारा किये गये निर्माण कार्यों का भी उल्लेख है। पर  वि स 1515 का लेख महत्वपूर्ण है। इसमे लाखा मंडावरा को "सकलवास्तुशास्तरविशारद" कहा गया है। जो इसकी महानता को दर्शाता है।  विभिन्न लेखों में जैता के पुत्रों का वर्णन है। जैता के पुत्रों के नाम नापा, पामा,पूंजा,भूमि,चुथी, व बलराज,थे  इनके अलावा भी चित्तोड मे कई शिल्पकार हुए हैं। वि स 1538 मै एक अप्रकाशित मूर्ति के लेख में शिल्पकार शिहा द्वारा शांतिनाथ की मूर्ति बनाने का उल्लेख है आ शत्रुंञ्जय के वि स 1587 के लेख में कई शिल्पकारो का यहा जीर्णोद्धार करने का उल्लेख मिलता है। 18 वी सदी में भी कई शिल्पकारो का वर्णन है। नीलकंठ मंदिर के स्तम्भ पर वि स 1787 का लेख है। इसमे सलावट बापा के पुत्र बीरभाणा मंडावरा का वर्णन है। वि स 1832,1833,1839 के लेखों में कई गजघर शिल्पकारो के नाम उल्लेखित है, जिनके नाम के आगे सलावट लिखा है! इस तरह से  चित्तोड के इतिहास में चित्तोड गढ के निर्माण मै कुमावत जाति के वास्तु शास्त्रीयो व शिल्पकारो का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

चितौड़गढ़ : निर्माण के इतिहास में कुमावत शिल्पीयो का योगदान २

चित्तोड के इतिहास में कई स्थापत्य कला के उल्लेखनीय शिल्पीयो हुए हैं। जिनकी भल्लभ सूर्य से सम्बन्धित शक स० 1028 के शिलालेख में "राम देव: सुधी: सुव्यक्ता जसदेव सूनुरूदकारीत्सूत्तधाराग्रणी" शब्द अंकित है। इसी प्रकार वि स 1207की कुमारपाल की प्रशस्ति मै सूत्रधार(शिल्पकार) का नाम स्पष्ट नही है। समिध्देश्वर के मंदिर के स्तम्भ पर वि स 1286  के दो लेख खुदे है। जिनपर शिल्पकारो के नाम खुदे है। रावल समरसिंह की चित्तोड की प्रशस्ति मै "सज्जनेन समुत्कीर्णा प्रशस्ति: शिल्पानामुना" शब्द है जो शिल्पकारो की प्रशस्ति मै लिखा गया है। पर शिल्पकारो की कुछ विशिष्ट परिवारों का उल्लेख 15वी शताब्दी में चित्तोड के इतिहास में दर्ज है। चित्तोड के स्थापत्य सूत्रधार वीजल के पुत्र माना और माना के  पुत्र वीस व वीसल का उल्लेख मिलता है। इतिहासकार रतन चंद्र ने अपने लेख मैवाड के कुशल शिल्पी मै इनका विस्तार से वर्णन लिखा है! माना के लिए कई सुन्दर प्रशाद निर्माण के लिए लिखा है! इस परिवार के लिए " गुणवान "  लेख में भी उल्लेख है। जिसमे लिखा है! मनाख्यो सकल गुणगाण बीजल सुख: शिल्पी जातो गुणगाण,युतो बीवसल ईति_ दुसरा महत्वपूर्ण उल्लेख महान वास्तुकार मंडन खनारिया के परिवार का है, मंडन के पिता खेता का भी उल्लेख है। जिसको कई इतिहासकारो ने गुजरात से बुलाया गया बताते हैं। पर इसका खंडन स्वयं मंडन ने अपने लिखे ग्रन्थो मै "श्री मद्देशे मेदपाटाभिगाने  छैत्राृ्योशभूत् सूत्रधारो वरिष्ठ: वर्णन किया है। जिससे खेता को मैवाड वासी कहलाने मै गर्व प्रकट किया है।  राजवल्लभ मंडन मै मंडन ने मैवाड मै किये गया निर्माण कार्य की व महाराणा कुंभा का वर्णन बड़े ही गर्व के साथ किया है। मंडन खनारिया उस समय का महान वास्तुकार रहा है। जिसने वास्तुकला पर कई ग्रन्थो की रचना की है। मंडन के छोटे भाई नाथा ने भी कई  सुंदर प्रशाद बनाये है उसने वास्तुमंजरी नामक ग्रंथ लिखा है! मंडन का पुत्र गोविन्द भी वास्तु शास्त्र व भवन निर्माण का बडा शिल्पकार हुआ है। जिसने वास्तु शास्त्र पर तीन ग्रन्थो की रचना की है। यथा_कलानिधि उध्दार घोरणि और द्वार दीपिका मुख्य हैं। यह महाराणा रायमल के समय में राज शिल्पी था  I 

राजस्थान का स्थापत्य - चित्रकला

राजस्थान का स्थापत्य - चित्रकला 



शेखावाटी अपनी हवेलियों के लिए विष्व प्रसिद्ध है जिसका कारण इन हवेलियों में बनाये गये भिती चित्र है। इस क्षेत्र में रामगढ़, फतेहपुर, लक्ष्मणगढ़, मंडावा, महनसर , बिसाऊ, नवलगढ़, डूडलोद व मुकंदगढ़ जैसे कस्बे हवेलियों के कारण ही आज भी विश्व  के   सैलानियों का आकर्षण का केन्द्र बने हुए है। इन हवेलियों के गुम्बद से लेकर तलघर तक भिती चित्रों से अटे पड़े है। विश्व में भिती चित्रों पर शोध  करने वाले अनेक शोधार्थी हर साल यहां आते है। शेखावाटी को खुली कला दीर्घा भी कहा जाता है। वर्तमान समय में इन हवेलियों के भिती चित्रों को देखने से पता चलता है कि इस चित्रकारी पर अलग-अलग युग का असर रहा है। कहीं मुगलकालीन दरबार व चित्रषैली देखने को मिलती है तो कहीं पारसी षैली का भी प्रभाव है।



शेखावाटी में सामन्त एवं धनाढ्य वर्ग ने दर्शनीय गढ़ो, हवेलियों, छत्रियो व् मंदिरों आदि का निर्माण स्थानीय कुमावत चेजारा वर्ग द्वारा किया गया था, उन्ही के द्वारा इन स्मारकों पर अत्यन्त कलात्मक भित्ति चित्रों का विभिन्न धातु एवं खनिज रंगो आराईस आदि के माध्यम से किया गया।    
चितेरा कहलाने वाले चित्रकारो को इस मे उत्कृष्टता हासिल थी। नर्हद (१,५०८ ई. में निर्मित) और झुनझुनु (हंसा 1680-82 राम द्वारा निर्मित) पर छतरियों चित्रकला के इस फार्म के ठीक नमूने हैं।

शेखावाटी के प्रमुख कुमावत चित्रकार 

श्री प्रताप जी बैंडवाल 
श्री गोविंदराम घोड़ेला 
श्री मांगीलाल घोड़ेला 
श्री लादूराम बबेरवाल 
श्री गिरधारी सिरस्वा 
श्री कन्हैयालाल बरबुडा
श्री शिवलाल बरबुडा
श्री आनंदीलाल बैंडवाल
श्री नारायण किरोड़ीवाल 
श्री जीतमल किरोड़ीवाल
श्री बालूराम किरोड़ीवाल
श्री रामचन्द्र घोड़ेला 
श्री कस्तूरचंद निमिवाल


किरोड़ीवाल, बैंडवाल, बरबुडा, सिरस्वा, घोड़ेला इत्यादि परिवार के कई युवा आज भी अपने पूर्वजो की कला परंपरा को कायम रखे हुए है।
















शेखावाटी  मंडावा हवेली पेंटिंग 









फतेहपुर/ रामगढ़ के कुमावत चित्रकार

१९वी सदी व 20वी सदी के पूर्वार्ध में फतेहपुर में कई हवेलिया, कूप, झरोखे छतरियों आदि का निर्माण व चित्रांकन कुमावत चेजाराओ के जिम्मे रहा। रामगढ़ की चित्र- संयोजना और निर्माण में तुनवाल परिवार के अनेक चित्रकारों का हाथ रहा। ऐसे चित्रकारों में श्री आराराम जी, श्री बालूराम जी श्री मोहनलाल जी श्री चुन्नीलाल जी, श्री रामचन्द्र जी, श्री बंशीधर जी, श्री कन्हैयालाल जी आदि प्रमुख थे  


लक्ष्मणगढ़ के कुमावत चित्रकार

श्री बालचंद जी मारोठिया 
श्री द्वारकाप्रसाद जी आदि का उल्लेखनीय योगदान रहा


 सीकर

सीकर राजस्थान का एक प्रमुख नगर है। उसी प्रकार वह कुमावत चित्रकारों का प्रमुख कला केंद्र रहा है। यहाँ के हिन्दू एवं जैन मंदिरों में अनेक कुमावत चित्रकारों ने चित्रांकन किया है।
सीकर व झुंझुनू क्षेत्र के इन चित्रकारों की प्रतिष्ठा, कला-मर्मज्ञता एवं लोकप्रियता भारत में दूर दूर तक फैली। आराईस, कांच पर चित्रकारी, सोने की चित्रकारी, भित्ति चित्र आदि के लिए इन्हे दूर -दूर तक के जैन मंदिरों में चित्रांकन हेतु आमंत्रित किया जाता था।

ढूँढाड़ शैली

जयपुर शैली का विकास महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय के काल से शुरू होता हैं, जब 1727 ई. में जयपुर की स्थापना हुई। महलों और हवेलियों के निर्माण के साथ भित्ति चित्रण जयपुर की विशेषता बन गयी। सवाई जयसिंह के उत्तराधिकारी ईश्वरीसिंह के समय साहिबराम नामक प्रतिभाशाली चितेरा था, जिसने आदमकद चित्र बनाकर चित्रकला की नयी परम्परा डाली। ईश्वरीसिंह के पश्चात् सवाई माधोसिंह प्रथम के समय गलता के मन्दिरों, सिसोदिया रानी के महल, चन्द्रमहल, पुण्डरीक की हवेली में कलात्मक भित्ति चित्रण हुआ। इसके पश्चात् सवाई प्रतापसिंह के समय चित्रकला की विशेष उन्नति हुई। इस समय राधाकृष्ण की लीलाओं, नायिका भेद, रागरागिनी, बारहमासा आदि का चित्रण प्रमुखतः हुआ।  बडे़-बड़े पोट्रेट (आदमकद या व्यक्ति चित्र) एवं भित्ति चित्रण की परम्परा जयपुर शैली की विशिष्ट देन है। उद्यान चित्रण में जयपुर के कलाकार दक्ष थे। जयपुर चित्रों में हाथियों की विविधता पायी जाती है। 



ये हवेलिया तो जिंदा है मगर आजादी के सालो  बाद आज स्थिति यह है कि इन हवेलियों के भिती चित्रों को बनाने वाले कलाकारों की पूरी पीढ़ी ही लुफ्त हो गई है। कुछ एक ही चित्रकार रहे हो जो भिती चित्रों की इस कला को जानता हो। इसके अनेक कारण गिनाये जा सकतें हैं कि आजादी के बाद न तो सरकार इन चित्रकारों की तरफ कोई ध्यान दिया और न ही समाज अपने स्तर पर इनकी कला को आगे बढ़ा सका। सबसे बड़ा सवाल है कि उस शोषण के इतिहास को पूरी तरह मिटाकर, बनीयों के बाप दादाओं के नाम पर कसीदे पढ़े जाते है। 

प्रधान वास्तुविद तथा मूर्तिशास्त्री मंडन एक परिचय




                               शिल्पी मंडन खनारिया
                        

वास्तुविद तथा मूर्तिशास्त्री मंडन की जन्म तिथि तो ज्ञात नहीं किन्तु  महाराणा कुंभा (1433-1468 ई.) का प्रधान सूत्रधार (वास्तुविद) तथा मूर्तिशास्त्री शिल्पी मंडन था। रूपमंडन में मूर्तिविधान की इसने अच्छी विवेचना प्रस्तुत की है। मंडन सूत्रधार केवल शास्त्रज्ञ ही न था, अपितु उसे वास्तुशास्त्र का प्रयोगात्मक अनुभव भी था।

मंडन सूत्रधार वास्तुशास्त्र का प्रकांड पडित तथा शास्त्रप्रणेता था। इसने पूर्वप्रचलित शिल्पशास्त्रीय मान्यताओं का पर्याप्त अध्ययन किया था। इनकी कृतियों में मत्स्यपुराण से लेकर अपराजितपृच्छा और हेमाद्रि तथा गोपाल के संकलनों का प्रभाव था।

काशी के कवींद्राचार्य (17वीं शती) की सूची में इनके  ग्रंथों की नामावली मिलती है। मंडन की रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

1. देवतामूर्ति प्रकरण
2. प्रासादमंडन
3. राजबल्लभ वास्तुशास्त्र
4. रूपमंडन
5. वास्तुमंडन
6. वास्तुशास्त्र
7. वास्तुसार
8. वास्तुमंजरी
9. आपतत्व

आपतत्व के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। रूपमंडन और देवतामूर्ति प्रकरण के अतिरिक्त शेष सभी ग्रंथ वास्तु विषयक हैं। वास्तु विषयक ग्रंथों में प्रासादमंडन सबसे महत्वपूर्ण है। इसमें चौदह प्रकार के प्रासाद (महल) के अतिरिक्त जलाशय, कूप, कीर्तिस्तंभ, पुर, आदि के निर्माण तथा जीर्णोद्धार का भी विवेचन है।


एक मूर्तिशास्त्र के रूप में भी मंडन बहुत बड़ा पंडित था। रूपमंडन में मूर्तिविधान की इसने अच्छी विवेचना प्रस्तुत की है।मंडन  केवल शास्त्रज्ञ ही न था, अपितु उसे वास्तुशास्त्र का प्रयोगात्मक अनुभव भी था।
कुंभलगढ़ का दुर्ग, जिसका निर्माण उसने 1458 ई. के लगभग किया, उसकी वास्तुशास्त्रीय प्रतिभा का साक्षी है। यहाँ से मिली मातृकाओं और चतुर्विंशति वर्ग के विष्णु की कुछ मूर्तियों का निर्माण भी संभवत: इसी के द्वारा या इसी की देखरेख में हुआ।


मंडन कृत राजवल्‍लभ वास्‍तुशास्‍त्र में कुंभा के काल में दुर्गों की सुरक्षा के लिए तैनात किए जाने वाले आयुधों, यंत्रों का जिक्र आया है - संग्रामे वह़नम्‍बुसमीरणाख्‍या।  मंडन ने ऐसे यंत्रों में आग्‍नेयास्‍त्र, वायव्‍यास्‍त्र, जलयंत्र, नालिका और उनके विभिन्‍न अंगों के नामों का उल्‍लेख किया है - फणिनी, मर्कटी, बंधिका, पंजरमत, कुंडल, ज्‍योतिकया, ढिंकुली, वलणी, पट़ट इत्‍यादि। ये तोप या बंदूक के अंग हो सकते हैं।


वास्‍तु मण्‍डनम में मंडन ने गौरीयंत्र का जिक्र किया है। अन्‍य यंत्रों में नालिकास्‍त्र का मुख धत्‍तूरे के फूल जैसा होता था। उसमें जो पॉवडर भरा जाता था, उसके लिए निर्वाणांगार चूर्ण शब्‍द का प्रयोग हुआ है। यह श्‍वेत शिलाजीत (नौसादर) और गंधक को मिलाकर बनाया जाता था। निश्चित ही यह बारूद या बारुद जैसा था। आग का स्‍पर्श पाकर वह तेज गति से दुश्‍मनों के शिविर पर गिरता था और तबाही मचा डालता था। वास्‍तु मंडन जाहिर करता है कि उस काल में बारुद तैयार करने की अन्‍य विधियां भी प्रचलित थी

राजस्थान का स्थापत्य - चित्रकला II

                         राजस्थान का स्थापत्य - चित्रकला



Nadine Le Prince Cultural Center नामक हवेली, जो पहले देवड़ा हवेली के नाम से जाना जाता था, को फ्रांस की एक कलाकार Nadine Le ने सन् 1998 में खरीदा और इस कलाकारी को फिर से जीवंत कर दिया।


                                                                   पटवा हवेली जैसलमेर 














डॉ कनुप्रिया कुमावत के शोध पत्र कुमावत कलाकारों का योगदान व चेजारा चितेरों द्वारा शेखावाटी की हवेलियों के चित्र व चित्रांकन पर अंग्रेजो का प्रभाव से कुछ अंश लिए गए है। लेखिका ने यह शोध पत्र राजस्थान स्कूल ऑफ़ आर्ट की तरफ से कानोडिया कॉलेज में हुए एक सेमिनार में पढ़ा था।


विस्तृत जानकारी के लिए लेखिका को खोजने के काफी प्रयासों के बाद भी सम्पर्क नहीं हो सका http://moomalgaliyara.blogspot.in/2014/02/blog-post_28.html

गुरुवार, 23 जून 2016

जगदीश मंदिर, उदयपुर




जगदीश मंदिर उदयपुर 
शिल्पी भाण व उसके पुत्र मुकुन्द 

उदयपुर स्थित जगदीश मंदिर मूलतः भगवान जगन्नाथ राय का मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण महाराणा जगत सिंह द्वारा 1652 ई. में करवाया गया था। यह मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित है और शहर के सबसे प्राचीन बड़े मंदिर के रूप में माना जाता है। इंडो - आर्यन स्थापत्य शैली में निर्मित इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ राय (कृष्ण) के अतिरिक्त भ्राता बलराम और बहन सुभद्रा की प्रतिमाएँ स्थापित की गई है। 


यह मंदिर सुंदर नक़्क़ाशीदार खंभों, चित्रित दीवारों और छत के साथ एक तीन मंजिला संरचना है। पहली और दूसरी मंजिल पर 50 खम्भे हैं। मंदिर के शीर्ष की ऊंचाई 79 फुट है जिस पर हाथियों और सवारों के साथ संगीतकारों और नर्तकियों की प्रतिमाओं को देखा जा सकता है। यहाँ भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ की प्रतिमा मंदिर के द्वार पर स्थापित है।


महाराणा जगत सिंह के आदेश से इस मंदिर के ऊपरी भाग में (सभामंडप के प्रवेश द्वार पर) की दोनों ओर की ताको में जगदीश मंदिर की प्रशस्ति लगाई गई हैचिकने काले पत्थर पर श्लोकबद्ध उत्कीर्ण इस प्रशस्ति में मेवाड़ के शासक बापा रावल से लेकर महाराणा जगत सिंह तक की वंशावली दी गई है। इसके अलावा इसमें विभिन्न महाराणाओं की उपलब्धियाँ भी वर्णित है। इसमें हल्दीघाटी के युद्ध का भी वर्णन है। महाराणा जगतसिंह के काल के लिए यह प्रशस्ति विशेष उपयोगी है।  इसमें मंदिर के निर्माण तथा इसकी प्राण प्रतिष्ठा का विवरण के अलावा इस प्रशस्ति के रचनाकार कृष्णभट्ट तैलंग तथा मंदिर के शिल्पी भाण व उसके पुत्र मुकुन्द का नाम भी अंकित है।
















यह मंदिर राजस्थान स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। 
राजपूताना के इतिहास व मालवा,तथा गुजरात के इतिहास में चावडा राजपूतो का वर्णन पाया गया है। कई प्रशस्ति मै पाया गया है। इनके वंंशज वास्तु शास्त्र  व मुर्ति कला के उल्लेखनीय शिल्पी हुए हैं। उस काल मै  इस कला को राज परिवार के लोग व ब्राह्मण किया करते थे।   समय के साथ इनके परिवार शिल्पवत सृजन के शिल्पी बन गया और कुमार शिल्पी,शिल्पकार, संतरास राजकुमार शिल्पी सलावट आदि नामों से जाना जाने लगे, इस बात का प्रमाण कुमारपाल के शासनकाल के शिलालेख चित्तोड से मिले है। वि स 1207 के लेख में वर्णित है। कि जब वह सपादलक्ष विजय करके लोट रहा था। तब वह मार्ग मै रुककर चित्तोड मै तिरीभूवन नारायण मंदिर के दर्शन किये,उस समय वहा दंडनायक सज्जन था। जो कुमार जाति का था, जिसका विसलदेव चौहान से हुए युद्ध का वर्णन है। यह शिलालेख इस बात को स्पष्ट करता है। कि आदिकालीन में कुमावत जाति का  राजपूत राजवंशो से संबंध रहा है।  राजपूत इतिहास में भी उस समय के चावडा राजपूतो को आज की कुमावत जाति मानी गई है। जिसका उल्लेख राजपूतो के इतिहास में दर्ज है। और चावडा राजपूतो के इलाके का वर्णन पाया गया है। उसी इलाके में कुमावत जाति की बीहुलता पाई जाती है। चावडा राजपूतो को सूर्य वंशी बताया गया है। और कुमावत भी अपने को सूर्यवंशी मानते हैं,

वास्तुकला

भवनो के विन्यास आकल्पन और रचना की तथा परिवर्तनशील समय तकनीक और रूची के अनुसार मानव की आवश्यकताओं को संतुष्ट करने योग्य सभी प्रकार के स्थानों के तर्कसंगत एवं बुद्दिसंगत निर्माण की कला विज्ञान तथा तकनीक का सम्मिश्रण वास्तुकला (आर्किटैक्चर)कहलाती हैं। वास्तुकला पुरातन काल की सामाजिक स्थिति प्रकाश में लाने वाला मुद्रणालय कही गई है। इसको और स्पष्ट किया जा सकता है! यह ललित कला की वह शाखा है। जिसका उद्देश्य औधोगिकी का सहयोग लेते हुए उपयोगिता की दृष्टि से उत्तम भवन निर्माण करना है। जिसका पर्यावरण सुसंस्कृत एवं कलात्मक रूची के लिए अत्यंत प्रिय सौंदर्य भावना से पोषक तथा आनन्दकर एव आनन्दवर्दक हो प्रकृति बुद्धि द्वारा निर्धारित कर कतिपय सिद्धांतों व अनुपातो से रचना करना इस कला की मुख्य धारा है। नक्शो व पिंडो का ऐसा विन्यास करना व भवनो की संरचना को अत्यंत उपयुक्त ढंग से समृद्ध करना,जिससे अधिकत्तम सुविधाओं के साथ रोचकता सौंदर्य,महानता,एकरूपता,और शक्ति की सृष्टि हो वह वास्तु शास्त्र कहलाता है। प्रारंभिक अवस्थाओ मै अथवा स्वल्पासिद्धि,के साथ वास्तुकला का स्थान मानव के लिए सिमित प्रियोजनो आवश्यक पेशा,या व्यवसायो मै प्राय मनुष्य के लिए किसी प्रकार का रक्षास्थान प्रदान करने के लिए होता था। धीरे धीरे यह कला एक महत्वपूर्ण योगदान देने वाली कला मै परिवर्तित हो गई,प्राचीन काल में इस कला को राज परिवारों के सदस्यों ने अपना ली, समय काल के अनुसार इस कला के पारखी अलग अलग सम्रदायो के नामो से जाना जाने लगे,जेसे समय बितता गया यह कला जाति विशेष की धरोहर के रूप में जानने लगी,किसी जाति के इतिहास मे वास्तुकृतियाँ महत्वपूर्ण तब होती है। जब उसके वास्तुकारो की बनाये अंश विलासिता,भव्यता,व समृद्धि के प्रतिक बनने लगे,और उसमे उस जाति के गर्व,प्रतिष्ठा महत्वाकांक्षा,आध्यात्मिकता,उसके कला कोसल मै प्रकृति के साथ पूर्णतया अभिव्यक्त होती हो, प्राचीन काल से ही वास्तुकला सभी कलाओ की जननी रही हैं।,यह जितना सत्य है। उतना ही सत्य यह भी है कि प्राचीन काल से ही वास्तुकला कुमावत जाति की स्थापित पहचान मानी जाती रही हैं। कुमावत जाति के वास्तुकारो ने युगो से द्रूत विकास क्रम के साथ भवनो के निर्माण के विकासी क्रम मै परिवर्तनशील आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपने आश्रृयदाता की  आवश्यकता के अनुसार उसकी सुरक्षा कार्य धर्म,आनन्द,को ध्यान में रखते हुए वास्तु शास्त्र के अनुसार योगदान देते रहे,प्रत्येक ऐतिहासिक वास्तु की उपलब्धि मोटे तौर पर दो मूल भूत सिद्धांतों से निश्चित की जा सकती है। एक जो संकल्पना मै अंतनिर्हित है,और दुसरी जो सर्वोच्च विशिष्टता का धोतक है। मिस्त्री(कारीगर) वास्तु मै यह रहस्यमयता सभी जगह दिखाई देती हैं। यह सत्य है, वास्तुकला ना कोई पथ है। ना शैली, वास्तुकारो ने अपने प्रियोजन मै युगो की निंरन्ता के बल पर विशेष बना दिया,जिस तरह से बदलते फैशन मे किसी महिला की पोशाक का कोई संबंध नही इसी तरह
वास्तुकला की परिधि भी समय के साथ होती रही हैं। तब ही तो कुमावत जाति के वास्तुकारो ने समय के साथ वास्तु शास्त्र के अनुसार घडी ऐतिहासिक धरोहरे आज भी विश्व के वास्तुकारो के लिए पहली से कम नही है।

शिल्पकला एवं कुमावत

स्थापत्य शिल्प साधना मै पारंगत कुमावत जाति राजपूताना की वह जाति है। जिसके लिए कहाँ जाता है। कि इस जाति मै जन्मजात यानि पैदायसी वास्तु शास्त्र के ग्याता होते हैं। भवन निर्माण के विश्वकर्मा के रूप में जाने जाने वाली यह राजस्थान की आदिकालीन जाति है। भारत मै आर्य सभ्यता का विकास प्रारंभ हुआ। तब यह क्षेत्र आर्य वत कहलाया अफगानिस्तान से लेकर ब्रह्मा तक के इस क्षेत्र मै राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में पितृ सत्तात्मक परिवार मै आधार बनने लगे,इस युग में जीवन सुखी व खुशहाल बनाने के लिए समाज में वर्ण व्यवस्था का सूत्रपात हुआ।उत्तर वैदिक काल में राज तंत्र और राजाओं के वच्रस्व में अत्याधिक वृद्धि और राजाओं का चयन वंशानुगत आधार मै होने लगे, और इसी दोर मै वंशवाद का सूत्रपात हुआ। सामाजिक व्यवस्था के सूत्रपात के लिए व्यवहार शास्त्र का प्रारंभ हुआ। और इस कारण आर्य सभ्यता का वैदिक काल भारतीय सभ्यता का विकास काल कहलाया,                                      प्राचीन भारत में जातियाँ व्यवस्था नही थी,बल्कि वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी,समाज चार भागों में विभाजित था,वर्णो का निर्धारण कर्म के आधार पर आधारित था,जो जेसा कर्म करता था,व उसी वर्ण मै माना जाता था। वर्तमान जाति व्यवस्था प्राचीन वर्ण व्यवस्था का ही परिवर्तित रूप है। प्रारंभिक सामाजिक व्यवस्था को कालांतर मैं धार्मिक संबल भी प्राप्त होता गया,और जाति व्यवस्था सुदृढ़ होती गई। कालांतर मैं जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए कई प्रयास हुए,बोद्ध ने दलित व महिलाओं को दीक्षित कर इस व्यवस्था को समाप्त करने का प्रयास किया,किन्तु भारतीय समाज मै जाति व्यवस्था की जडे इतनी गहरी हो चूकी थी कि उन्हें उखाडा नहीं जा सका,गुप्त काल के समय जाति व्यवस्था अपने योवन पर थी,      '                 भारतीय समाज मै जाति व्यवस्था इतनी मजबूत है। कि विभिन्न सामाजिक सुधार आंदोलन व आधुनिक विचारों के प्रचार प्रसार के बावजूद भारतीय समाज से जाति व्यवस्था की जडो से मुक्त नही किया जा सका,बल्कि उत्तोतर वृद्धि और मजबूती होती गई। यहाँ तक कि भारत के संविधान निर्माताओं को भी संविधान निर्माण के समय इस जाति व्यवस्था का विशेष ध्यान रखना पडा,वर्तमान में तो भारतीय राजनीति पूरी तरह जातियाँ समीकरणो मै जकड चूकी है। तथा इसमे और वृद्धि हो रही हैं। भारतीय समाज मै जातियो के उदभव की और दृष्टि डाले तो हमे ग्यात होता है। कि अपने उदभवकाल मै जातियाँ सामाजिक और प्रशिक्षण कर्ता हुआ करते थे। उनका गठन कर्म के आधार पर हुआ था। कुछ जातियाँ अपने तकनीकी ग्यान एक पिडी से दुसरी पिडी को हस्तांतरित करता रहता था,कुम्हार,सुनार,नाई,खाती,कुमावत पुर्व मै (सलावट,संतरास,गजधर,मिस्त्री,राजमिस्त्री,चेजारा,वास्तुकार,कारीगर,,)ये वो जातियाँ है रही हैं। जो कार्यों का वंशानुगत हस्तांतरित का ही विकसित रूप है। इन जातियों रो दस्तकार जातियाँ कहा गया,कुछ अपने ग्यान के कुछ पराक्रम के बल पर बनी,पर आज सभी जातियों का आधार जन्मजात हो गया है।                कुमावत जाति का वर्तमान स्वरूप हजारो वर्षों के सामाजिक परिवर्तन एवं परिस्थिति,जन अस्तित्व निर्माण शैली,वास्तु के सृजन का परिष्कृत रूप हैं। जिस प्रकार अन्य जातियाँ अपने कर्म के अनुसार जानी गई है। कुमावत जाति भी अपने कर्म के आधार पर जानी गई है। देशकाल एवं स्थानीय अलग अलग परिस्थितियों के कारण इस जाति को अलग अलग नामो से जाना जाता रहा है। जेसे उस्ता,राजकुमार,राजमिस्त्री,चैजारा,गवडी,परदेशी,नाईक,बैलदार,राज शिल्पि राजकुमावत, पर इन सबका कर्म भवन निर्माण व खेती बाड़ी रहा है।       कुमावत जाति के लौग आदिकालीन समय से ही स्थापत्य कला सृजन के काम के लिए जानी जाती रही हैं। प्रमाणो के अनुसार  सूर्यवंशी श्री राम के वंशज राजा कुरम के वंशज मानते हैं। क्षत्रिय  राजवंश मै राजा एक को बनाया जाता था। शेष राजकुमार राजा के अधीन काम करने मै हीनता समझते थे। इस कारण उस समय स्थापत्य शिल्प के काम को उच्चतम स्तर का समझा जाता था। इस कारण अन्य राजपुत्र अपने आप को इस काम मै लीन कर लेते रहे हैं। और प्राचीन काल में राज वंशो मै जो भव्य मंदिर बने है। यह इस बात का प्रमाण है। धीरे धीरे समय के साथ इन राजवंशो के परिवार अपने आप को काम के अनुसार  संतरास,सलावट,राजकुमार शिल्पि सुत्रधार, कलानिघि कारीगर, कलाकार,मिस्त्री,आदि नामो जाना जाने लगे,तथा स्थापत्य शिल्प साधना के विश्वकर्मा कहलाने लगे समय काल के अनुसार इस धरा पर ऐतिहासिक धरोहरो का निर्माण करते रहे,                मैवाड मै महाराणा कुंभा के शासनकाल में स्थापत्य कला के शिल्पकारो का स्वर्णिम अध्याय रहा है। यह वह दोर था जब मैवाड को सवारने के लिए मैवाड मै स्थापत्य कला के शिल्पकार कई जगहों से वहा शिल्प सृजन के लिए समूह के रूप में आये, कुंभा के शासनकाल में यही 32किलो का निर्माण किया गया उनमे कुछ का जीर्णोद्धार हुआ था। महाराणा कुंभा ने गुजरात के सुल्तान पर विजय प्राप्त करने पर उस विजय को चिरस्थाई बनाने के लिए चित्तोड मे विजय स्तंभ का निर्माण करवाया था। विजय स्तंभ के निर्माण के बाद महाराणा कुंभा ने एक बडे राज दरबार का आयोजन किया था जिसमे अनेक राजाओं,सांमतो के साथ अनेक राज शिल्पीयो को आमंत्रित किया था, महाराणा कुंभा ने राज शिल्पीयो को सम्बन्धित करते हुए अपने उद्बोधन में सर्वप्रथम कुमावत शब्द शिल्पकारो के लिए कहा, उन्होंने कहाँ है कुमावत क्षत्रियो कु यानि घरती मा यानी माता वत यानी सतत् रक्षक वास्तव में आप मैवाड की धरा के रक्षक तुम हो आप यही अनेक नामों से जानें जानें के बाद भी केवल शिल्प सृजन के काम के लिए आये हो  आपका काम ही जब एक है आप सब कुमावत क्षत्रिय हौ, आपने जिस तरह से मैवाड की सुरक्षा के लिए प्राचीरो,किलो गढ़ महल जलाशयो का निर्माण किया है। मैवाड मै आपका  हमेशा सम्मान बना रहेगा।

मंगलवार, 21 जून 2016

जयपुर की समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा और कुमावत



आमेर के तौर पर यह जयपुर नाम से प्रसिद्ध प्राचीन रजवाड़े की भी राजधानी रहा है। इस शहर की स्थापना १७२८ में आमेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने की थी। जयपुर अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा, सरस-संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। जयपुर शहर की पहचान यहाँ के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है जो यहाँ के स्थापत्य की खूबी है। 

जयपुर को आधुनिक शहरी योजनाकारों द्वारा सबसे नियोजित और व्यवस्थित शहरों में से गिना जाता है। देश के सबसे प्रतिभाशाली वास्तुकारों में इस शहर के वास्तुकार विद्याधर चक्रवर्ती का नाम सम्मान से लिया जाता है।किन्तु वास्तविक वास्तुकार थे उस्ता लालचंद इतिहास तो तोड़ मरोड़ कर पेश कर विद्याधर चक्रवर्ती का नाम जोड़ दिया गया जयपुर आयोजन के कपडे पर बने पुराने नक़्शे आज भी सुरक्षित है जिस पर उस्ता लाल चंद के हस्ताक्षर है।विद्याधर चक्रवर्ती तो आमेर दरबार की 'कचहरी-मुस्तफी' में  महज़ एक नायब-दरोगा (लेखा-लिपिक) थे,किन्तु इतिहासकारो ने लेखा- लिपिक को वास्तुविद्य बना दिया।

जयपुर को भारत का पेरिस भी कहा जाता है। इस शहर के वास्तु के बारे में कहा जाता है कि शहर को सूत से नाप लीजिये, नाप-जोख में एक बाल के बराबर भी फ़र्क नही मिलेगा।


जयपुर स्थापत्य 

नियोजित तरीके से बसाये गये इस जयपुर में महाराजा के महल, औहदेदारों की हवेली और बाग बगीचे, ही नही बल्कि आम नागरिकों के आवास और राजमार्ग बनाये गये। गलियों का और सडकों का निर्माण वास्तु के अनुसार और ज्यामितीय तरीके से किया गया,नगर को सुरक्षित रखने के लिये, इस नगर के चारों ओर एक परकोटा बनवाया गया| पश्चिमी पहाडी पर नाहरगढ का किला बनवाया गया। पुराने दुर्ग जयगढ मे हथियार बनाने का कारखाना बनवाया गया, जिसे देख कर आज भी वैज्ञानिक चकित हो जाते हैं 

महाराजा सवाई जयसिंह ने जयपुर को नौ आवासीय खण्डों मे बसाया, जिन्हें चौकडी कहा जाता है, इनमे सबसे बडी चौकडी सरहद में राजमहल,रनिवास,जंतर मंतर,गोविंददेवजी का मंदिर, आदि हैं, शेष चौकडियों में नागरिक आवास, हवेलियां और कारखाने आदि बनवाये गये। वास्तुकार ने सुन्दर शहर को इस तरह से बसाया कि यहां पर नागरिकों को मूलभूत आवश्यकताओं के साथ अन्य किसी प्रकार की कमी न हो, सुचारु पेयजल व्यवस्था, बाग-बगीचे, कल कारखाने आदि के साथ वर्षाजल का संरक्षण और निकासी का प्रबंध भी करवाया।


बाजार- जयपुर प्रेमी कहते हैं कि जयपुर के सौन्दर्य को को देखने के लिये कुछ खास नजर चाहिये, बाजारों से गुजरते हुए, जयपुर की बनावट की कल्पना को आत्मसात कर इसे निहारें तो पल भर में इसका सौन्दर्य आंखों के सामने प्रकट होने लगता है। लम्बी चौडी और ऊंची प्राचीर तीन ओर फ़ैली पर्वतमाला सीधे सपाट राजमार्ग गलियां चौराहे चौपड भव्य राजप्रसाद.मंदिर और हवेली, बाग बगीचे,जलाशय और गुलाबी आभा से सजा यह शहर इन्द्रपुरी का आभास देने लगता है,जलाशय तो अब नहीं रहे, किन्तु कल्पना की जा सकती है, कि अब से कुछ दशक पहले ही जयपुर परकोटे में ही सिमटा हुआ था, तब इसका भव्य एवं कलात्मक रूप हर किसी को मन्त्र मुग्ध कर देता होगा. आज भी जयपुर यहां आने वाले सैलानियों को बरसों बरस सहेज कर रखने वाले रोमांचकारी अनुभव देता है।

जयपुर में स्थापत्य एवं शिल्प की अनूठी परम्परा की प्रमुख इमारते एवं स्थल 


हवा महल


ईसवी सन् 1799 में निर्मित हवा महल राजपूत स्थापत्य का मुख्य प्रमाण चिन्ह। पुरानी नगरी की मुख्य गलियों के साथ यह पाँच मंजिली इमारत गुलाबी रंग में अर्धअष्टभुजाकार और परिष्कृत छतेदार बलुए पत्थर की खिड़कियों से सुसज्जित है। वास्तुकार एवं शिल्पी उस्ता लालचंद 

सरगासूली- (ईसर लाट) 

अठारहवीं सदी में 1749 में सात खण्डों की इस भव्य जयपुर शहर की सबसे ऊंची मीनार मीनार 'ईसरलाट' उर्फ़ 'सरगासूली' का निर्माण महाराजा ईश्वरी सिंह ने जयपुर के गृहयुद्धों में विरोधी सात दुश्मनों पर अपनी तीन विजयों के बाद करवाया था। वास्तुकार एवं शिल्पी गणेश खोवाल

अल्बर्ट हॉल संग्रहालय

यह राजस्थान का सबसे पुराना संग्रहालय है । यह संग्रहालय "राम निवास उद्यान" के बाहरी ओर सीटी वॉल के नये द्वार के सामने है ।यह "भारत-अरबी शैली" में बनाई गयी एक बिल्डिंग है । इसकी डिजाइन सर सैम्युल स्विंटन जैकब ने की थी। जिसका निर्माण उस्ता रामविलास मनेठिया, जागीरदार उस्ता लक्ष्मी नारायण  मनेठिया एवं जागीरदार उस्ता रामबक्श मुस्सर के सानिध्य में सम्पन हुआ 

आमेर, जयगढ़ एवं नाहरगढ़ के किले 

वास्तु स्थापत्य, शिल्प एवं ज्योतिर्विज्ञान का विश्व-विख्यात नगर जयपुर अपने विकासशील स्वरूप एवं ऐतिहासिक आमेर, जयगढ़ एवं नाहरगढ़ के किलो के कारण भारत के पुरातत्वीय एवं पर्यटक केंद्र के रूप में सर्व विख्यात है।
जयपुर चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य, आराइस एवं विविध शिल्प कलाओं ल सदियों से एक महानतम केंद्र रहा है। इस केंद्र की कला को समृद्ध करने में अनेक ज्ञाताज्ञाता कुमावत शिल्पियों कलाकारों का अनुभवसिद्ध एवं प्रयोगशील योगदान रहा है।

आमेर के किले में जो विशाल प्राकार, द्वार, प्रांगण, दरबार-कक्ष, सभागार, अंतःपुर झरोखे, मंदिर आदि बने है, उनके निर्माण सज्जा आराइस एवं चित्रांकन में कुमावत शिल्पियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। दुर्भाग्य से उनके नाम जानने के साधन नहीं है, फिर भी जो नाम सामने आये है उनका उल्लेख निम्ननासूर है।

महाराजा                                                               कुमावत शिल्पकार 
सवाई जय सिंह जी                                                 अनतराम कैकटिया 
रामसिंह जी                                                            जागीरदार उस्ता रामविलास मनेठिया
                                                                             जागीरदार उस्ता लक्ष्मी नारायण  मनेठिया
                                                                             जागीरदार उस्ता रामबक्श मुस्सर 
ईश्वरसिंह जी                                                           गणेश खोवाल 

माधोसिंह जी                                                          उस्ता खूबराम कुसुम्बीवाल
मानसिंह जी                                                           जगधर उस्ता गोपीचंद 
                                                                             पद्मश्री रामप्रकाश गहलोत 
                                                                             दुर्गालाल नन्दीवाल

शनिवार, 18 जून 2016

प्रधान वास्तुविद तथा मूर्तिशास्त्री मंडन एक परिचय





शिल्पी मंडन की मूर्ति विजय स्तंभ में कुर्सी पर विराजित रूप में 

राजपुताना वीरों की इस धरा पर वीरों के साथ ज्ञान और कार्य की पूजा भी खूब हुई है। ऐसे बहुत कम उदाहरण मिलते हैं, जहां निर्माण करने वाले शिल्पकारों को भी सम्मान दिया गया हो। चित्तौडग़ढ़  विश्वप्रसिद्ध दुर्ग पर कला को तत्कालीन महाराणा ने सम्मान देते हुए  शिल्पकारों के नाम और मूर्तियां भी स्थापित की है । शिल्पी मंडन निर्दिष्ट यह प्रतिमा कीर्ति अथवा विजय स्तंभ में उत्कीर्ण है। जैसा निर्देश मंडन का था। उसको साकार कर दिखाया था। विजयस्तंभ के शिल्पी जयता और उसके पुत्र थै। उसने प्रयोग भी बहुत किए थे। जयता बहुत दक्ष शिल्पकार था। उसकी दक्षता को श्रेय देते हुए महाराणा कुंभा (1448 ई.) ने उसकी मूर्ति विजय स्तंभ में कुर्सी पर विराजित रूप में लगवाई थी। जो आज भी देखी जा सकती है। मूर्ति के समक्ष उनके पुत्रों के चित्र भी है। चित्तौडग़ढ़ के इतिहास पर कार्य रहे जिले के आकोला निवासी डा. श्रीकृष्ण जुगनू के अनुसार इस तरह का श्रेय बहुत कम शिल्पियों को मिला होगा।

इसी तरह दुर्ग स्थित समिद्वेश्वर महादेव मंदिर जीर्णोद्घार का श्रेय मोकल को जाता है। महाराणा कुंभाकालीन एकलिंग माहात्म्य के एक श्लोक में मोकल के इस योगदान का स्मरण करते हुए कहा गया कि उन्होंने इस मंदिर केजीर्णोद्वार के बाद मणि तोरण लगवाया था। इससे पहले भी इसका जीर्णोद्घार हुआ था। जिसके दो शिल्पियों के आरेखन बाहर छतरियों पर बने हुए हैं। कुंभा के समय प्रासाद के निर्माण से पूर्व यही प्रासाद यहां के राजाओं के लिए एक तरह से आराध्य स्वरूप था। यह इस काल की अनोखी परंपरा थी कि शिल्पियों का आरेखन होता था और बाद में भी यह रही। महाराणा मोकल ने शिल्पकार खेता को को तो सकल कलाधर की उपाधि से नवाजा था। महाराणा जगतसिंह ने शिल्पकार मंडन के प्रपोत्र मुकुंद सहित अन्य को गजधर की उपाधि दी थी।

राजस्थान का स्थापत्य - हवेली स्थापत्य

हवेली स्थापत्य


राजस्थान की पहचान स्थापत्य कला से है एवं राजस्थान का स्थापत्य कुमावत समाज की देन है ।राजस्थान में बड़े-बड़े सेठ साहूकारों तथा धनी व्यक्तियों ने अपने निवास के लिये विशाल हवेलियों का निर्माण करवाया। ये हवेलियाँ कई मंजिला होती थी। शेखावाटी, ढूँढाड़, मारवाड़ तथा मेवाड़  क्षेत्रों की हवेलियाँ स्थापत्य की दृष्टि से भिन्नता लिए हुये हैं। शेखावाटी क्षेत्र की हवेलियाँ अधिक भव्य एवं कलात्मक है। 

जयपुर, जैसलमेर, बीकानेर, तथा शेखावाटी के रामगढ़, नवलगढ़, फतहपुर, मुकु ंदगढ़, मण्डावा, पिलानी, सरदार शहर, रतनगढ़ आदि कस्बों में खड़ी विशाल हवेलियाँ आज भी अपने स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। राजस्थान की हवेलियाँ अपने छज्जों, बरामदों और झरोखें पर बारीक नक्काशी के लिए प्रसिद्ध हैं।

जैसलमेर की हवेलियाँ राजपूताना के आकर्षण का केन्द्र रही है। यहाँ की पटवों की हवेली अपनी शिल्पकला, विशालता एवं अद्भुत नक्काशी के कारण प्रसिद्ध है।  यह पाँच मंजिला हवेली शहर के मध्य स्थित है। इस हवेली के जाली-झरोखें बरबस ही पर्यटक को आकर्षित करते हैं। पटवों की हवेली के अतिरिक्त जैसलमेर, में स्थित सालिमसिंह की हवेली का शिल्प-सौन्दर्य भी बेजोड़ है। इस नौ खण्डी हवेली के प्रथम सात खण्ड पत्थर के और ऊपरी दो खण्ड लकड़ी के बने हुये थे। बाद में लकड़ी के दोनों खण्ड उतार लिये गये। जैसलमेर की नथमल की हवेली भी शिल्पकला की दृष्टि से अपना अनूठा स्थान रखती है। इस हवेली का शिल्पकारी का कार्य हाथी और लालू नामक दो भाइयों ने इस संकल्प के साथ शुरू किया था कि वे हवेली में प्रयुक्त शिल्प को दोहरायेंगे नहीं, इसी कारण इसका शिल्प अनूठा है।

बीकानेर की प्रसिद्ध ‘बच्छावतों की हवेली’ का निर्माण सोलहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कर्णसिंह बच्छावत ने करवाया था। इसके अतिरिक्त बीकानेर में मोहता, मूंदड़ा, रामपुरिया आदि की हवेलियाँ अपने
शिल्प वैभव के कारण विख्यात है। बीकानेर की हवेलियाँ लाल पत्थर से निर्मित है। इन हवेलियों में ज्यॉमितीय शैली की नक्काशी है एवं आधार को तराश कर बेल-बूटे, फूल-पत्तियाँ आदि उकेरे गये हैं।
इनकी सजावट में मुगल, किशनगढ़ एवं यूरोपीय चित्रशैली का प्रयोग किया गया है।

शेखावाटी की हवेलियाँ अपने भित्तिचित्रों के लिए विख्यात है। शेखावाटी की स्वर्णनगरी के रूप में विख्यात नवलगढ़ (झुंझुनू) में सौ से ज्यादा हवेलियाँ अपनी शिल्प आभा बिखेरे हुये है। यहाँ की हवेलियों में रूप निवास, भगत, जालान, पोद्दार और भगेरियाँ की हवेलियाँ प्रसिद्ध हैं। बिसाऊ (झुंझुनूं) में नाथूराम पोद्दार की हवेली, सेठ जयदयाल केठिया की तथा सीताराम सिंगतिया की हवेली प्रसिद्ध है। झुंझुनू में टीबड़ेवाला की हवेली तथा ईसरदास मोदी की हवेली अपने शिल्प वैभव के कारण अलग ही छवि लिए हुए हैं। डूंडलोद (झुंझुनूं) में सेठ लालचन्द गोयनका, मुकुन्दगढ़ (झुंझुनू) में सेठ राधाकृष्ण एवं केसरदेव कानेड़िया की हवेलियाँ, चिड़ावा (झुंझुनू) में बागड़िया की हवेली, महनसर (झुंझुनू) की सोने-चाँदी की हवेली, श्रीमाधोपुर (सीकर) में पंसारी की हवेली प्रसिद्ध है। झुंझुनूं जिले की ये ऊँची-ऊँची हवेलियाँ बलुआ पत्थर, ईंट, जिप्सम एवं चूना, काष्ठ तथा ढलवाँ धातु के समन्वय से निर्मित अपने अन्दर भित्ति चित्रों की छटा लिये हुए हैं।

 सीकर में गौरीलाल बियाणी की हवेली, रामगढ़ (सीकर) में ताराचन्द रूइया की हवेली समकालीन भित्तिचित्रों के कारण प्रसिद्ध है। फतहपुर (सीकर) में नन्दलाल देवड़ा, कन्हैयालाल गोयनका की हवेलियाँ भी भित्तिचित्रों के कारण प्रसिद्ध है। चूरू की हवेलियों में मालजी का कमरा, रामनिवास गोयनका की हवेली, मंत्रियों की हवेली इत्यादि प्रसिद्ध है। खींचन (जोधपुर) में लाल पत्थरों की गोलेछा एवं टाटिया परिवारों की हवेलियाँ भी कलात्मक स्वरूप लिए हुए है।

जोधपुर में बड़े मियां की हवेली, पोकरण की हवेली, राखी हवेली, टोंक की सुनहरी कोठी, उदयपुर में बागौर की हवेली, जयपुर का हवामहल, नाटाणियों की हवेली, रत्नाकार पुण्डरीक की हवेली, पुरोहित प्रतापनारायण जी की हवेली इत्यादि हवेली स्थापत्य के विभिन्न रूप हैं। राजस्थान में मध्यकाल के वैष्णव मंदिर भी हवेलियों जैसे ही बनाये गये हैं। इनमें नागौर का बंशीवाले का मंदिर, जोधपुर का रणछोड़जी का मंदिर, घनश्याम जी का मंदिर, जयपुर का कनक वृंदावन आदि प्रमुख हैं। देशी-विदेशी पर्यटकों को लुभानें तथा राजस्थानी स्थापत्य कला को संरक्षण देने के लिए वर्तमान में अनेक हवेलियों का जीर्णोद्धार किया जा रहा है।


राजस्थान का स्थापत्य -मन्दिर शिल्प



मन्दिर शिल्प का वास्तुविद मंडन शिल्पी 




मन्दिर शिल्प की दृष्टि से राजस्थान अत्यन्त समृद्ध है तथा उत्तर भारत के मंदिर स्थापत्य के इतिहास में उसका विशिष्ट महत्त्व है। मंडन महाराणा कुंभा (1433-1468 ई.) का प्रधान सूत्रधार (वास्तुविद) तथा मूर्तिशास्त्री था। मंडन शिल्पी ने रूपमंडन और देवतामूर्ति प्रकरण ग्रन्थ की रचना कर इतिहास में सर्वप्रथम मूर्तिविधान की विवेचना प्रस्तुत की है। मंडन सूत्रधार केवल शास्त्रज्ञ ही न था, अपितु उसे वास्तुशास्त्र का प्रयोगात्मक अनुभव भी था।

राजथान में सातवीं शताब्दी से पूर्व जो मन्दिर बनेदुर्भाग्य से उनके अवशेष ही प्राप्त होते हैं। यहाँ मन्दिरों के विकास का काल सातवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य रहा। यह वह काल थाजब राजस्थान में अनेक मन्दिर बने। इस काल में ही मन्दिरों की क्षेत्रीय शैलियाँ विकसित हुई। इस काल में विशाल एवं परिपूर्ण मन्दिरों का निर्माण हुआ। लगभग आठवीं शताब्दी से राजस्थान में जिस क्षेत्रीय शैली का विकास हुआगुर्जर-प्रतिहार अथवा महामारू कहा गया है। इस शैली के अन्तर्गत प्रारम्भिक निर्माण मण्डौर के प्रतिहारोंसांभर के चौहानों तथा चित्तौड़ के मौर्यों ने किया। इस प्रकार के मन्दिरों में केकीन्द (मेड़ता) का नीलकण्ठेश्वर मन्दिरकिराडू का सोमेश्वर मन्दिर प्रमुख है।


ग्यारहवीं से तेरहवीं सदी के बीच निर्मित होने वाले राजस्थान के मन्दिरों को श्रेष्ठ समझा जाता है क्योंकि यह मन्दिर - शिल्प के उत्कर्ष का काल था। इस युग में राजस्थान में काफी संख्या में बड़े और अलंकृत मन्दिर बने, जिन्हें सोलंकी या मारु गुर्जर शैली के अन्तर्गत रख जा सकता है। इस शैली के मन्दिरों में ओसियाँ का सच्चिया माता मन्दिर, चित्तौड़ दुर्ग में स्थित समिंधेश्वर मन्दिर आदि प्रमुख हैं। इस शैली के द्वार सजावटी है। खंभे अलंकृत, पतले, लम्बे और गोलाई लिये हुये है, गर्भगृह के रथ आगे बढ़े हुये है। ये मन्दिर ऊँची पीठिका पर बने हुये हैं।


राजस्थान में जैन मतावम्बियों ने अनेक जैन मन्दिर बनवाये, जो वास्तुकला की दृष्टि से अभूतपूर्व हैं। इन मंदिरों में विशिष्ट तल विन्यास संयोजन और स्वरूप का विकास हुआ जो इस धर्म की पूजा-पद्धति और मान्यताओं के अनुरूप था। जैन मन्दिरों में सर्वाधिक प्रसिद्ध देलवाड़ा के मन्दिर है। इनके अतिरिक्त रणकपुर, ओसियाँ, जैसलमेर आदि स्थानों के जैन मन्दिर प्रसिद्ध है। साथ ही, पाली जिले में सेवाड़ी, घाणेराव, नाडौल-नारलाई, सिरोही जिले में वर्माण, झालावाड़ जिले में चाँदखेड़ी और झालरापाटन, बूँदी में केशोरायपाटन, करौली में श्रीमहावीर जी आदि स्थानों के जैन मन्दिर प्रमुख हैं।

किराडू के मन्दिरबाड़मेर  :-यादव वंश की कुलदेवी कैलादेवी का मन्दिर करौली से 26 किमी दूर अवस्थित है। यहाँ का मुख्य मन्दिर संगमरमर से बना हुआ हैजिसमें कैलादेवी (महालक्ष्मी) एवं चामुण्डा देवी की प्रतिमाएँ स्थापित हैं।

गणेश मन्दिररणथम्भौर :-सवाई माधोपुर शहर के निकट स्थित रणथम्भौर के किले में देशभर में विख्यात त्रिनेत्र मन्दिर बना हुआ है। सिन्दूर लेपन की मात्रा अधिक होने के कारण मूर्ति का वास्तविक स्वरूप जानना कठिन है

गोविन्ददेव जी मन्दिर जयपुर :-जयपुर का गोविन्ददेवजी मन्दिर गौड़ीय सम्प्रदाय का प्रमुख मन्दिर है। वल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी इनके बालरूप की पूजा करते हैंतो गौड़ीय सम्प्रदाय वाले युगल रूप अर्थात् राधाकृष्ण के रूप में पूजते हैं। 

जगतशिरोमणि मन्दिरआमेर  :-आमेर में स्थित इस मंदिर का निर्माण कछवाहा शासक मानसिंह की पत्नी कंकावती ने अपने पुत्र जगतसिंह की स्मृति में करवाया था। कहा जाता है इस मंदिर में प्रतिष्ठित काले पत्थर की  कृष्ण की मूर्ति वही मूर्ति हैजिसकी मीरा चित्तौड़ में आराधना किया करती थी।यह मंदिर अपने उत्कृष्ट शिल्प एवं सौन्दर्य के कारण आमेर का सबसे अधिक विख्यात मंदिर है।

जगदीश मंदिरउदयपुर :-उदयपुर में स्थित जगदीश मन्दिर शिल्पकला की दृष्टि से अनूठा है। इसका निर्माण 1651 में महाराणा जगतसिंह ने करवाया था।इस मन्दिर के बाहरी भाग में चारों ओर अत्यन्त सुन्दर शिल्प बना हुआ है। कर्नल टॉडगौरीशंकर हीराचन्द ओझाकविराज श्यामलदास आदि ने इस मन्दिर के शिल्प की उत्कृष्टता की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।

जैन मन्दिर देलवाड़ा :-सफेद संगमरमर से निर्मित भारतीय शिल्पकला की उत्कृष्टता तथा जैन संस्कृति के वैभव और उदारता को प्रकट करने वाले देलवाड़ा के जैन मन्दिर सिरोही जिले में आबू पर्वत पर स्थित है।यहाँ के मन्दिरों के मंडपोंस्तम्भोंछतरियों तथा वेदियों के निर्माण में श्वेत पत्थर पर इतनी बारीक एवं भव्य खुदाई की गई हैजो अन्यत्र दुर्लभ है। वस्तुतः यह मन्दिर सम्पूर्ण भारत में कलात्मकता में बेजोड़ है

ब्रह्मा मन्दिर पुष्कर
जैन मन्दिर रणकपुर
शिलादेवी मन्दिर आमेर
श्रीनाथजी मन्दिर नाथद्वारा
सच्चिया माता र्मिन्दर ओसियां
सास-बहू मन्दिर नागदा

विस्तृत विवरण अन्य पृष्ठों में संकलित किया जायेगा 

राजस्थान का स्थापत्य - राजप्रासाद एवं महल स्थापत्य

राजस्थान का स्थापत्य - राजप्रासाद एवं महल स्थापत्य 

प्रमुख शिल्पी एवं वास्तुविद् हुए जिनमें मण्डन, नापा, भाणा, आदि प्रमुख हैं



प्राचीन ग्रंथों में राजप्रासाद वास्तु का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। राजस्थान को इतिहास में ‘राजाओं के प्रदेश’ के नाम से भी जाना गया है। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक था कि राजा अपने रहने के विस्तृत आवास बनाते। दुर्भाग्य से अब राजस्थान के प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल की संधिकाल के राजप्रासादों के खण्डहर ही शेष रहे हैंमेनाल, नागदा आदि स्थान के राजप्रासादों के खण्डहर यह बताते हैं कि वे सादगी युक्त थे। इनमें संकरे दरवाजे एवं खिड़कियों का अभाव है, जो सुरक्षा के कारणों से रखे गये हैं।

मध्यकाल में राजप्रासाद विशाल, भव्य एवं अलंकृत बनने लगे। पूर्व मध्यकाल में अधिकांश राजप्रासाद किलों में ही देखने को मिलते हैं। इन राजप्रासादों में राजा एवं उसके परिवार के अतिरिक्त उसके बन्धु-बान्धव तथा अतिविशिष्ट नौकरशाही रहा करती थी। इस युग में भी कई वास्तुविद् हुए जिनमें मण्डन, नापा, भाणा, आदि प्रमुख हैं। कुम्भायुगीन प्रख्यात शिल्पी मण्डन का विचार है कि राजभवन नगर के मध्य में अथवा नगर के एक तरफ किसी ऊँचे स्थान पर बनाना चाहिये। उसने जनाना एवं मर्दाना महलों को सुगम मार्गों से जोड़े जाने की व्यवस्था सुझाई है। उसने अन्य महलों को भी एक-दूसरे से जोड़ने तथा सभी को एक इकाई का रूप देने पर बल दिया है। 

कुम्भाकालीन राजप्रासादा सादे थे किन्तु बाद के काल में महलों की बनावट एवं शिल्प में परिवर्तन दिखाई देता है। 15वीं शताब्दी के पश्चात् महलों में मुगल प्रभाव देखा जा सकता है। अब इन महलों में तड़क-भड़क देखी जा सकती है। फव्वारे, छोटे बाग-बगीचे, बेल-बूँटे, संगमरमर का प्रयोग, मेहराब, गुम्बज आदि रूपों में मुगल प्रभाव को इन इमारतों में देखा जा सकता है। उदयपुर के महलों में अमरसिंह के महल कर्णसिंह का जगमन्दिर, जगतसिंह द्वितीय के समय के प्रीतम निवास महल, जगनिवास महल, आमेर के दीवाने आम, दीवाने खास, बीकानेर के कर्णमहल, शीशमहल, अनूप महल, रंगमहल, जोधपुर का फूल महल आदि पर मुगल प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। सत्रहवी शताब्दी के बाद कोटा, बूँदी, जयपुर आदि में निर्मित महलों में स्पष्टतः मुगल प्रभाव दिखाई देता है। मुगल प्रभाव के कारण राजप्रासादों में दीवाने आम, दीवाने खास, चित्रशालाएँ, बारहदरियाँ, गवाक्ष - झरोखे, रंग महल आदि को स्थान मिलने लगा। इस प्रकार के महलों में जयपुर का सिटी पैलेस, उदयपुर का सिटी पैलेस प्रमुख है। राजस्थान के महलों में डीग के महलों का विशिष्ट स्थान है। डीग के महल जाट नरेश सूरजमल द्वारा निर्मित है। डीग के महलों के चारों ओर छज्जे (कार्निस) हैं, जो प्रभावोत्पादक है। डीग के महलों एवं इनमें बने उद्यानों का संयोजन विशेष कौशल का परिचय कराता है। यह जल महल के नाम से भी प्रख्यात है। डीग के महलों में गोपाल भवन विशेष है।


उपरोक्त वर्णित राजप्रासाद एवं महलो के स्थापत्य सम्बंधित विस्तृत जानकरी अन्य पृष्ठों पर उल्लेख किया जायेगा 


गुरुवार, 16 जून 2016

विश्व प्रसिद्ध हवामहल :- राजशिल्पी उस्ता लाल चंद कुमावत




                                                                                      राजशिल्पी उस्ता लाल चंद कुमावत




                            हवामहल की डिजाईन राजशिल्पी लालचंद उस्ता ने तैयार की थी

हवामहल को निर्विरोध रूप से जयपुर का ग्लोबल सिंबल माना जाता है। दुनिया भर में हवामहल गुलाबी शहर की पहचान के रूप में विख्यात है। बड़ी चौपड़ से कुछ ही कदम चांदी की टकसाल की ओर चलने पर बांयी ओर खड़ी यही भव्य इमारत मुकुट की डिजाइन में बनी हुई है। यह पांच मंजिला शानदार इमारत दरअसल सिटी पैलेस के ’जनान-खाने’ यानि कि हरम का ही एक हिस्सा है। राजपरिवार की महिलाओं के लिए बनाए गए इस महल की यह पृष्ठ दीवार है जो सिरहड्योढी बाजार की ओर झांकती हुई है।

इस खूबसूरत इमारत का निर्माण सन् 1799 में महाराजा सवाई प्रतापसिंह ने कराया था। राजा प्रताप कृष्णभक्त थे। इसीलिए उन्होंने इस इमारत का निर्माण भगवान कृष्ण के मुकुट के आकार में ही कराया। हवामहल में 152 झरोखेदार खिड़कियां हैं। इन खिड़कियों में से बहती हवा महल के भीतर आकर वातानुकूलन का कार्य करती है। सैकड़ों खिडकियों में से हवा के प्रवाह के कारण ही इस महल को ’हवामहल’ कहा गया। सिरहड्योढी की ओर निकली इस खिड़कीदार भव्य इमारत के निर्माण के पीछे मुख्य उद्देश्य रनिवास में रहने वाली शाही महिलाओं के लिए बाजार और चौपड़ की रौनक, तीज व गणगौर की सवारी और मेले, शाही सवारियां, जुलूस और उत्सव आदि देखने की व्यवस्था करना था। भवन की डिजाईन राजशिल्पी लालचंद उस्ता ने तैयार की थी। यह भव्य इमारत लाल और गुलाबी बलुआ पत्थरों से बनी है और अपने आधार से इसकी उंचाई पचास फीट है। हवामहल की स्थापत्य शैली भी राजपूत और मुगल शैलियों का बेजोड़ नमूना है। हवामहल की पहली दो मंजिलें गलियारों और कक्ष से जुड़ी हैं। रत्नों से सजे इस कक्ष को रत्न महल कहा जाता है। वहीं चौथी मंजिल को प्रकाश मंदिर व पांचवी मंजिल को हवा मंदिर कहा जाता है।

महल का सामने का हिस्सा, जो हवा महल के सामने की मुख्य सड़क से देखा जाता है| इसकी प्रत्येक छोटी खिड़की पर बलुआ पत्थर की बेहद आकर्षक और खूबसूरत नक्काशीदार जालियां, कंगूरे और गुम्बद बने हुए हैं। यह बेजोड़ संरचना अपने आप में अनेकों अर्द्ध अष्टभुजाकार झरोखों को समेटे हुए है, जो इसे दुनिया भर में बेमिसाल बनाते हैं। इमारत के पीछे की ओर के भीतरी भाग में अलग-अलग आवश्यकताओं के अनुसार कक्ष बने हुए हैं जिनका निर्माण बहुत कम अलंकरण वाले खम्भों व गलियारों के साथ किया गया है और ये भवन की शीर्ष मंजिल तक इसी प्रकार हैं।

लाल चंद उस्ता इस अनूठे भवन का वास्तुकार थे, जिसने जयपुर शहर की भी शिल्प व वास्तु योजना तैयार करने में सहयोग दिया था। शहर में अन्य स्मारकों की सजावट को ध्यान में रखते हुए लाल और गुलाबी रंग के बलुआ-पत्थरों से बने इस महल का रंग जयपुर को दी गयी 'गुलाबी नगर' की उपाधि के लिए एक पूर्ण प्रमाण है। हवा महल का सामने का हिस्सा ९५३ अद्वितीय नक्काशीदार झरोखों से सजा हुआ है (जिनमे से कुछ लकड़ी से भी बने हैं) और यह हवा महल के पिछले हिस्से से इस मायने में ठीक विपरीत है, क्योंकि हवा महल का पिछला हिस्सा एकदम सादा है। इसकी सांस्कृतिक और शिल्प सम्बन्धी विरासत हिन्दू राजपूत शिल्प कला और मुग़ल शैली का एक अनूठा मिश्रण है, उदाहरण के लिए इसमें फूल-पत्तियों का आकर्षक काम, गुम्बद और विशाल खम्भे राजपूत शिल्प कला का बेजोड़ उदाहरण हैं, तो साथ ही साथ, पत्थर पर की गयी मुग़ल शैली की नक्काशी, सुन्दर मेहराब आदि मुग़ल शिल्प के नायाब उदाहरण हैं। 

   
हवामहल शिलालेख मुख्य वास्तुकार उस्ता लाल चंद कुमावत 
  
  
हवा महल की खिडकियों में रंगीन शीशों का अनूठा शिल्प। जब सूर्य की रौशनी इन रंगीन शीशों से होकर हवा महल के कमरों में प्रवेश करती है तो पूरा कमरा इन्द्रधनुषी आभा से भर जाता है।





हवा महल की एक खिड़की से हवा महल के पिछले हिस्से का एक बेहतरीन नज़ारा। इस फोटो में आप ऊपर दायीं ओर एक तिरछी दीवार के रूप में जंतर मंतर का सम्राट यन्त्र देख रहे हैं और बाईं ओर एक लम्बी मीनार के रूप में ईसरलाट देख रहे हैं।







हवामहल का 1880  में लिया गया छायाचित्र  


                         

                                 भारतीयों का ही नहीं फिरंगियों का भी पसंदीदा पर्यटक स्थल







दयालबाग राधास्वामी सत्संग,आगरा


दयालबाग आगरा 
प्रमुख शिल्पी नारायण जी, आनंदी लाल करोडीवाल,  कन्हैयालाल जी सिरोहिया एवं भौरी लाल जी खोवाल


दयालबाग की स्थापना राधास्वामी सत्संग के पांचवे संत सत्गुरु परम गुरु हुजूर साहब जी महाराज (सर आनन्द स्वरुप साहब) ने बसन्त पंचमी के दिन 20 जनवरी 1915 को की थी।





स्वामीबाग़ समाधि हुजूर स्वामी जी महाराज (श्री शिव दयाल सिंह सेठ) का स्मारक/ समाधि है। यह आगरा के बाहरी क्षेत्र में है, जिसे स्वामी बाग कहते हैं। सन् 1908 ईस्वी में इसका निर्माण आरम्भ हुआ था , तब से आज तक कुमावत समाज के शिल्पकारो ने लगातार 100 वर्षों से भी अधिक समय तक इसके निर्माण मै जुटे हैं। इन शिल्पीयो मै प्रमुख नारायण जी आनंदी लाल करोडीवाल,  कन्हैयालाल जी सिरोहिया एवं भौरी लाल जी खोवाल रहे हैं। जिन्होंने हिन्दू वास्तुकला के अनुसार इसकी संकल्पना बनाकर निर्माण प्रारंभ किया,इन परिवारों के साथ ही अन्य समाज बंधुओं की पाचवी पीढ़ी आज यही निर्माण कार्य मै लगी है।






सफेद संगमरमर पर खिलता कमल, बेल पर लटके अंगूर और अशोक की लहराती पत्तियां। आंखें इस कला को देखें तो दिमाग से जुबान के लिए यह संदेश आता है कि वह पूछे कि आखिर किन हाथों ने इन्हें छुआ है। क्या इसके आगे वास्तुकला में स्थापत्य कला का कोई ताज है। 

समाधि की योजना एवं परिकल्पना मूल रूप से भारतीय है, किंतु वास्तुशिल्प भारत के परंपरागत शिल्प से भिन्न है। निर्माण किसी विशेष शैली के स्थान पर मिलीजुली कला का ऐसा नमूना है, जो सहजता से किसी को भी आकर्षित करने में सक्षम है। दीवारों, खम्भों के सिरों और मेहराबों पर फूल पत्तियां इस प्रकार से गढ़ी गई हैं कि प्रथम दृष्टया तो असली ही जान पड़ती हैं। कमल, केला, पपीता, अशोक, अंगूर की बेल तथा अन्य फूल-पत्तियों को पत्थर पर तराशने का जो काम यहां देखने को मिलता है, वह प्रकृति के अनुकूल है और शिल्प कला का अनूठा एवं श्रेष्ठ उदहारण है। 






इमारत की आधार शिला 52 कुओं पर रखी है, जिन्हें 40 से 45 फुट की गहराई तथा साढ़े पांच से दस फुट तक के व्यास में खोदकर ईटों, गिट्टी तथा चूने से भर दिया है। मुख्य भवन 110 फुट लम्बा और 55 फुट चौड़े वर्गाकार का चबूतरा है। 

प्रथम तल पर मुख्य हाल 68 फुट का वर्गाकार है। इसके चारों ओर 15 फुट का बरामदा है। आगे चलकर इसी हाल में स्वामी जी महाराज की महापवित्र रज जो इस समय तहखाने में स्थित है, प्रतिष्ठित किये जाने की योजना है। इमारत में प्रयुक्त श्वेत तथा गुलाबी पत्थर मकराना की खानों से आया है। हरा पत्थर बड़ोदरा व पीला जैसलमेर की खानों का है। बहुरंगी झलक वाले पत्थर नौशेरा की खानों से मंगवाये हुए हैं।  

समाधि स्थल पर नक्काशी कृत गुंबद व मुख्य द्वार की नक्काशी देखते ही बनती है। वर्तमान समय में कुमावत जाति की स्थापत्य शिल्प साधना का यह अनोखा संग्रह है, जिस तरह की कुमावत शिल्पकारो ने यहाँ नक्काशी का काम किया है। उसकी जितनी तारीफ की जाये वह कम है। यह  जब भी पुर्ण होगा, ताजमहल से कई गुणा सुंदर होगा ।