शनिवार, 18 जून 2016

प्रधान वास्तुविद तथा मूर्तिशास्त्री मंडन एक परिचय





शिल्पी मंडन की मूर्ति विजय स्तंभ में कुर्सी पर विराजित रूप में 

राजपुताना वीरों की इस धरा पर वीरों के साथ ज्ञान और कार्य की पूजा भी खूब हुई है। ऐसे बहुत कम उदाहरण मिलते हैं, जहां निर्माण करने वाले शिल्पकारों को भी सम्मान दिया गया हो। चित्तौडग़ढ़  विश्वप्रसिद्ध दुर्ग पर कला को तत्कालीन महाराणा ने सम्मान देते हुए  शिल्पकारों के नाम और मूर्तियां भी स्थापित की है । शिल्पी मंडन निर्दिष्ट यह प्रतिमा कीर्ति अथवा विजय स्तंभ में उत्कीर्ण है। जैसा निर्देश मंडन का था। उसको साकार कर दिखाया था। विजयस्तंभ के शिल्पी जयता और उसके पुत्र थै। उसने प्रयोग भी बहुत किए थे। जयता बहुत दक्ष शिल्पकार था। उसकी दक्षता को श्रेय देते हुए महाराणा कुंभा (1448 ई.) ने उसकी मूर्ति विजय स्तंभ में कुर्सी पर विराजित रूप में लगवाई थी। जो आज भी देखी जा सकती है। मूर्ति के समक्ष उनके पुत्रों के चित्र भी है। चित्तौडग़ढ़ के इतिहास पर कार्य रहे जिले के आकोला निवासी डा. श्रीकृष्ण जुगनू के अनुसार इस तरह का श्रेय बहुत कम शिल्पियों को मिला होगा।

इसी तरह दुर्ग स्थित समिद्वेश्वर महादेव मंदिर जीर्णोद्घार का श्रेय मोकल को जाता है। महाराणा कुंभाकालीन एकलिंग माहात्म्य के एक श्लोक में मोकल के इस योगदान का स्मरण करते हुए कहा गया कि उन्होंने इस मंदिर केजीर्णोद्वार के बाद मणि तोरण लगवाया था। इससे पहले भी इसका जीर्णोद्घार हुआ था। जिसके दो शिल्पियों के आरेखन बाहर छतरियों पर बने हुए हैं। कुंभा के समय प्रासाद के निर्माण से पूर्व यही प्रासाद यहां के राजाओं के लिए एक तरह से आराध्य स्वरूप था। यह इस काल की अनोखी परंपरा थी कि शिल्पियों का आरेखन होता था और बाद में भी यह रही। महाराणा मोकल ने शिल्पकार खेता को को तो सकल कलाधर की उपाधि से नवाजा था। महाराणा जगतसिंह ने शिल्पकार मंडन के प्रपोत्र मुकुंद सहित अन्य को गजधर की उपाधि दी थी।

कोई टिप्पणी नहीं: