बुधवार, 15 जून 2016

शिल्प एवं वास्तुकला तथा वर्ण-व्यवस्था

कितने आश्चर्य की बात है। जो जाति स्थापत्य कला सृजनात्मक विकास के भवननिर्माणकला, मूर्ति कला,चित्रकारी की सृजन रही हो। जिसको लोग अपने नये भवन के निर्माण की नींव रखते समय विश्वकर्मा  मानकर पूजते हो, वह जाति अन्य समाज का हिस्सा केसे हो गई, इसी बात के शोध से यह मालूम हुआ।कि इतिहासकारो ने अपनी ब्राहमणवादी व्यवस्था के अनुरूप  आर्य सभ्यता से ही इस जाति व्यवस्था के साथ बडा भद्दा मजाक किया है। जो एक परशनचिनह है।उन्होंने कला व शिल्प के सृजन करताऔ का संबंध सवर्ण के साथ नही रखा,यहा तक कि भगवान विश्वकर्मा को भी सवर्ण नही माना,क्योंकि इन्हे मालूम था, शिल्पीवत की कला के पारखी  सभ्यता के रचनाकार है।और इनको महामंडित कर दिया तो हमारी चूले हिल जायेगी। इसीलिए सृजन कार्यो के काम करने वाली जातियो को चौथे नंबर पर रखा गया।जबकि शिल्पीवत कलाकार आदिकाल से ही सभ्यता और संस्कृति की कहानी कह रहे है।जो पुरातत्व सर्वेक्षण मै  सत्य पाया गया है।जब पुरातत्व खुदाई मै प्राप्त ईटी सभ्यता की सूचक है।तो वास्तु अनुसार निर्माण उसकी उचाई का कीर्तिमान स्थापित कर रहे है।किंतु उस समय की ब्राहमणवादी व्यवस्था को यह अच्छा नही लगा, यह इन शिल्पीयो के साथ खिलवाड़ होता रहा, मध्यकालीन व्यवस्था मै भी यही हुआ है। जबकि शिल्पीवत सृजन के पुरोधा कुमावत जिसे इसी ब्राहमणवादी व्यवस्था के तहत अलग अलग नामो से जेसे चेजारा,सलावट,कारीगर,मिस्री,संतरास,राजगीर,राज मिस्त्री,राजकुमार,कुमारशिल्पी,कुमार सलावट,गवंडी, आदि नामो से जाना जाता था,जो उच्चकोटि के शिल्पकार(सृजन)  रहे है।जिन्होने अपने सधे हाथो के कमाल और छीनी हथोड़े  से देश की विरासत को अनोखी अनमोल धरोहरे निर्माण कर दी है।जो सभ्यता के सोपान पर बहुत ही उच्च,कोटि की है,उनमे चाहे गढ,महल,दुर्ग,किले हो चाहे तालाब,बावडिया , मंदिर या हवेलिया हो, जिनको देखकर विश्व के लोग भारत के गोरव शाली इतिहास की प्रशंसा करते नही थकते, यह सब कुमावत जाति की परंपरागत  भवननिर्माण शैली वास्तुकला,चित्रकारी व पिचीकारी,मूर्तिकला के नायब नमूने है।जिसमे अन्य किसी जाति का योगदान नही है। और ना ही किसी जाति के पास ऐसी कला साधना है।किंतु इस जाति की कला साधना को दबाने के लिए शायद ब्राहमणवादी व्यवस्था ने ही इस जाति की सादगी, व अपनी कला साधना मै लीन रहने का फायदा उठाकर एक ऐसी जाति के साथ जोड दिया,जिस जाति के काम, व संस्कृति से इनका कोई मेल ही नही है। और जो कला साधना, का शिल्पीवत  भंडार इस जाति के लोग के पास है, उस जाति का कोई भी व्यक्ति इस कला साधना का साधक रहा ही नही, चाहे किसी भी धरोहर के इतिहास को देख ले,

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