शनिवार, 25 जून 2016

राजस्थान का स्थापत्य - चित्रकला

राजस्थान का स्थापत्य - चित्रकला 



शेखावाटी अपनी हवेलियों के लिए विष्व प्रसिद्ध है जिसका कारण इन हवेलियों में बनाये गये भिती चित्र है। इस क्षेत्र में रामगढ़, फतेहपुर, लक्ष्मणगढ़, मंडावा, महनसर , बिसाऊ, नवलगढ़, डूडलोद व मुकंदगढ़ जैसे कस्बे हवेलियों के कारण ही आज भी विश्व  के   सैलानियों का आकर्षण का केन्द्र बने हुए है। इन हवेलियों के गुम्बद से लेकर तलघर तक भिती चित्रों से अटे पड़े है। विश्व में भिती चित्रों पर शोध  करने वाले अनेक शोधार्थी हर साल यहां आते है। शेखावाटी को खुली कला दीर्घा भी कहा जाता है। वर्तमान समय में इन हवेलियों के भिती चित्रों को देखने से पता चलता है कि इस चित्रकारी पर अलग-अलग युग का असर रहा है। कहीं मुगलकालीन दरबार व चित्रषैली देखने को मिलती है तो कहीं पारसी षैली का भी प्रभाव है।



शेखावाटी में सामन्त एवं धनाढ्य वर्ग ने दर्शनीय गढ़ो, हवेलियों, छत्रियो व् मंदिरों आदि का निर्माण स्थानीय कुमावत चेजारा वर्ग द्वारा किया गया था, उन्ही के द्वारा इन स्मारकों पर अत्यन्त कलात्मक भित्ति चित्रों का विभिन्न धातु एवं खनिज रंगो आराईस आदि के माध्यम से किया गया।    
चितेरा कहलाने वाले चित्रकारो को इस मे उत्कृष्टता हासिल थी। नर्हद (१,५०८ ई. में निर्मित) और झुनझुनु (हंसा 1680-82 राम द्वारा निर्मित) पर छतरियों चित्रकला के इस फार्म के ठीक नमूने हैं।

शेखावाटी के प्रमुख कुमावत चित्रकार 

श्री प्रताप जी बैंडवाल 
श्री गोविंदराम घोड़ेला 
श्री मांगीलाल घोड़ेला 
श्री लादूराम बबेरवाल 
श्री गिरधारी सिरस्वा 
श्री कन्हैयालाल बरबुडा
श्री शिवलाल बरबुडा
श्री आनंदीलाल बैंडवाल
श्री नारायण किरोड़ीवाल 
श्री जीतमल किरोड़ीवाल
श्री बालूराम किरोड़ीवाल
श्री रामचन्द्र घोड़ेला 
श्री कस्तूरचंद निमिवाल


किरोड़ीवाल, बैंडवाल, बरबुडा, सिरस्वा, घोड़ेला इत्यादि परिवार के कई युवा आज भी अपने पूर्वजो की कला परंपरा को कायम रखे हुए है।
















शेखावाटी  मंडावा हवेली पेंटिंग 









फतेहपुर/ रामगढ़ के कुमावत चित्रकार

१९वी सदी व 20वी सदी के पूर्वार्ध में फतेहपुर में कई हवेलिया, कूप, झरोखे छतरियों आदि का निर्माण व चित्रांकन कुमावत चेजाराओ के जिम्मे रहा। रामगढ़ की चित्र- संयोजना और निर्माण में तुनवाल परिवार के अनेक चित्रकारों का हाथ रहा। ऐसे चित्रकारों में श्री आराराम जी, श्री बालूराम जी श्री मोहनलाल जी श्री चुन्नीलाल जी, श्री रामचन्द्र जी, श्री बंशीधर जी, श्री कन्हैयालाल जी आदि प्रमुख थे  


लक्ष्मणगढ़ के कुमावत चित्रकार

श्री बालचंद जी मारोठिया 
श्री द्वारकाप्रसाद जी आदि का उल्लेखनीय योगदान रहा


 सीकर

सीकर राजस्थान का एक प्रमुख नगर है। उसी प्रकार वह कुमावत चित्रकारों का प्रमुख कला केंद्र रहा है। यहाँ के हिन्दू एवं जैन मंदिरों में अनेक कुमावत चित्रकारों ने चित्रांकन किया है।
सीकर व झुंझुनू क्षेत्र के इन चित्रकारों की प्रतिष्ठा, कला-मर्मज्ञता एवं लोकप्रियता भारत में दूर दूर तक फैली। आराईस, कांच पर चित्रकारी, सोने की चित्रकारी, भित्ति चित्र आदि के लिए इन्हे दूर -दूर तक के जैन मंदिरों में चित्रांकन हेतु आमंत्रित किया जाता था।

ढूँढाड़ शैली

जयपुर शैली का विकास महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय के काल से शुरू होता हैं, जब 1727 ई. में जयपुर की स्थापना हुई। महलों और हवेलियों के निर्माण के साथ भित्ति चित्रण जयपुर की विशेषता बन गयी। सवाई जयसिंह के उत्तराधिकारी ईश्वरीसिंह के समय साहिबराम नामक प्रतिभाशाली चितेरा था, जिसने आदमकद चित्र बनाकर चित्रकला की नयी परम्परा डाली। ईश्वरीसिंह के पश्चात् सवाई माधोसिंह प्रथम के समय गलता के मन्दिरों, सिसोदिया रानी के महल, चन्द्रमहल, पुण्डरीक की हवेली में कलात्मक भित्ति चित्रण हुआ। इसके पश्चात् सवाई प्रतापसिंह के समय चित्रकला की विशेष उन्नति हुई। इस समय राधाकृष्ण की लीलाओं, नायिका भेद, रागरागिनी, बारहमासा आदि का चित्रण प्रमुखतः हुआ।  बडे़-बड़े पोट्रेट (आदमकद या व्यक्ति चित्र) एवं भित्ति चित्रण की परम्परा जयपुर शैली की विशिष्ट देन है। उद्यान चित्रण में जयपुर के कलाकार दक्ष थे। जयपुर चित्रों में हाथियों की विविधता पायी जाती है। 



ये हवेलिया तो जिंदा है मगर आजादी के सालो  बाद आज स्थिति यह है कि इन हवेलियों के भिती चित्रों को बनाने वाले कलाकारों की पूरी पीढ़ी ही लुफ्त हो गई है। कुछ एक ही चित्रकार रहे हो जो भिती चित्रों की इस कला को जानता हो। इसके अनेक कारण गिनाये जा सकतें हैं कि आजादी के बाद न तो सरकार इन चित्रकारों की तरफ कोई ध्यान दिया और न ही समाज अपने स्तर पर इनकी कला को आगे बढ़ा सका। सबसे बड़ा सवाल है कि उस शोषण के इतिहास को पूरी तरह मिटाकर, बनीयों के बाप दादाओं के नाम पर कसीदे पढ़े जाते है। 

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