गुरुवार, 23 जून 2016

वास्तुकला

भवनो के विन्यास आकल्पन और रचना की तथा परिवर्तनशील समय तकनीक और रूची के अनुसार मानव की आवश्यकताओं को संतुष्ट करने योग्य सभी प्रकार के स्थानों के तर्कसंगत एवं बुद्दिसंगत निर्माण की कला विज्ञान तथा तकनीक का सम्मिश्रण वास्तुकला (आर्किटैक्चर)कहलाती हैं। वास्तुकला पुरातन काल की सामाजिक स्थिति प्रकाश में लाने वाला मुद्रणालय कही गई है। इसको और स्पष्ट किया जा सकता है! यह ललित कला की वह शाखा है। जिसका उद्देश्य औधोगिकी का सहयोग लेते हुए उपयोगिता की दृष्टि से उत्तम भवन निर्माण करना है। जिसका पर्यावरण सुसंस्कृत एवं कलात्मक रूची के लिए अत्यंत प्रिय सौंदर्य भावना से पोषक तथा आनन्दकर एव आनन्दवर्दक हो प्रकृति बुद्धि द्वारा निर्धारित कर कतिपय सिद्धांतों व अनुपातो से रचना करना इस कला की मुख्य धारा है। नक्शो व पिंडो का ऐसा विन्यास करना व भवनो की संरचना को अत्यंत उपयुक्त ढंग से समृद्ध करना,जिससे अधिकत्तम सुविधाओं के साथ रोचकता सौंदर्य,महानता,एकरूपता,और शक्ति की सृष्टि हो वह वास्तु शास्त्र कहलाता है। प्रारंभिक अवस्थाओ मै अथवा स्वल्पासिद्धि,के साथ वास्तुकला का स्थान मानव के लिए सिमित प्रियोजनो आवश्यक पेशा,या व्यवसायो मै प्राय मनुष्य के लिए किसी प्रकार का रक्षास्थान प्रदान करने के लिए होता था। धीरे धीरे यह कला एक महत्वपूर्ण योगदान देने वाली कला मै परिवर्तित हो गई,प्राचीन काल में इस कला को राज परिवारों के सदस्यों ने अपना ली, समय काल के अनुसार इस कला के पारखी अलग अलग सम्रदायो के नामो से जाना जाने लगे,जेसे समय बितता गया यह कला जाति विशेष की धरोहर के रूप में जानने लगी,किसी जाति के इतिहास मे वास्तुकृतियाँ महत्वपूर्ण तब होती है। जब उसके वास्तुकारो की बनाये अंश विलासिता,भव्यता,व समृद्धि के प्रतिक बनने लगे,और उसमे उस जाति के गर्व,प्रतिष्ठा महत्वाकांक्षा,आध्यात्मिकता,उसके कला कोसल मै प्रकृति के साथ पूर्णतया अभिव्यक्त होती हो, प्राचीन काल से ही वास्तुकला सभी कलाओ की जननी रही हैं।,यह जितना सत्य है। उतना ही सत्य यह भी है कि प्राचीन काल से ही वास्तुकला कुमावत जाति की स्थापित पहचान मानी जाती रही हैं। कुमावत जाति के वास्तुकारो ने युगो से द्रूत विकास क्रम के साथ भवनो के निर्माण के विकासी क्रम मै परिवर्तनशील आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपने आश्रृयदाता की  आवश्यकता के अनुसार उसकी सुरक्षा कार्य धर्म,आनन्द,को ध्यान में रखते हुए वास्तु शास्त्र के अनुसार योगदान देते रहे,प्रत्येक ऐतिहासिक वास्तु की उपलब्धि मोटे तौर पर दो मूल भूत सिद्धांतों से निश्चित की जा सकती है। एक जो संकल्पना मै अंतनिर्हित है,और दुसरी जो सर्वोच्च विशिष्टता का धोतक है। मिस्त्री(कारीगर) वास्तु मै यह रहस्यमयता सभी जगह दिखाई देती हैं। यह सत्य है, वास्तुकला ना कोई पथ है। ना शैली, वास्तुकारो ने अपने प्रियोजन मै युगो की निंरन्ता के बल पर विशेष बना दिया,जिस तरह से बदलते फैशन मे किसी महिला की पोशाक का कोई संबंध नही इसी तरह
वास्तुकला की परिधि भी समय के साथ होती रही हैं। तब ही तो कुमावत जाति के वास्तुकारो ने समय के साथ वास्तु शास्त्र के अनुसार घडी ऐतिहासिक धरोहरे आज भी विश्व के वास्तुकारो के लिए पहली से कम नही है।

कोई टिप्पणी नहीं: