शिल्पी मंडन खनारिया
वास्तुविद तथा मूर्तिशास्त्री मंडन की जन्म तिथि तो ज्ञात नहीं किन्तु महाराणा कुंभा (1433-1468 ई.) का प्रधान सूत्रधार (वास्तुविद) तथा मूर्तिशास्त्री शिल्पी मंडन था। रूपमंडन में मूर्तिविधान की इसने अच्छी विवेचना प्रस्तुत की है। मंडन सूत्रधार केवल शास्त्रज्ञ ही न था, अपितु उसे वास्तुशास्त्र का प्रयोगात्मक अनुभव भी था।
मंडन सूत्रधार वास्तुशास्त्र का प्रकांड पडित तथा शास्त्रप्रणेता था। इसने पूर्वप्रचलित शिल्पशास्त्रीय मान्यताओं का पर्याप्त अध्ययन किया था। इनकी कृतियों में मत्स्यपुराण से लेकर अपराजितपृच्छा और हेमाद्रि तथा गोपाल के संकलनों का प्रभाव था।
काशी के कवींद्राचार्य (17वीं शती) की सूची में इनके ग्रंथों की नामावली मिलती है। मंडन की रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1. देवतामूर्ति प्रकरण
2. प्रासादमंडन
3. राजबल्लभ वास्तुशास्त्र
4. रूपमंडन
5. वास्तुमंडन
6. वास्तुशास्त्र
7. वास्तुसार
8. वास्तुमंजरी
9. आपतत्व
आपतत्व के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। रूपमंडन और देवतामूर्ति प्रकरण के अतिरिक्त शेष सभी ग्रंथ वास्तु विषयक हैं। वास्तु विषयक ग्रंथों में प्रासादमंडन सबसे महत्वपूर्ण है। इसमें चौदह प्रकार के प्रासाद (महल) के अतिरिक्त जलाशय, कूप, कीर्तिस्तंभ, पुर, आदि के निर्माण तथा जीर्णोद्धार का भी विवेचन है।
एक मूर्तिशास्त्र के रूप में भी मंडन बहुत बड़ा पंडित था। रूपमंडन में मूर्तिविधान की इसने अच्छी विवेचना प्रस्तुत की है।मंडन केवल शास्त्रज्ञ ही न था, अपितु उसे वास्तुशास्त्र का प्रयोगात्मक अनुभव भी था।
कुंभलगढ़ का दुर्ग, जिसका निर्माण उसने 1458 ई. के लगभग किया, उसकी वास्तुशास्त्रीय प्रतिभा का साक्षी है। यहाँ से मिली मातृकाओं और चतुर्विंशति वर्ग के विष्णु की कुछ मूर्तियों का निर्माण भी संभवत: इसी के द्वारा या इसी की देखरेख में हुआ।
मंडन कृत राजवल्लभ वास्तुशास्त्र में कुंभा के काल में दुर्गों की सुरक्षा के लिए तैनात किए जाने वाले आयुधों, यंत्रों का जिक्र आया है - संग्रामे वह़नम्बुसमीरणाख्या। मंडन ने ऐसे यंत्रों में आग्नेयास्त्र, वायव्यास्त्र, जलयंत्र, नालिका और उनके विभिन्न अंगों के नामों का उल्लेख किया है - फणिनी, मर्कटी, बंधिका, पंजरमत, कुंडल, ज्योतिकया, ढिंकुली, वलणी, पट़ट इत्यादि। ये तोप या बंदूक के अंग हो सकते हैं।
वास्तु मण्डनम में मंडन ने गौरीयंत्र का जिक्र किया है। अन्य यंत्रों में नालिकास्त्र का मुख धत्तूरे के फूल जैसा होता था। उसमें जो पॉवडर भरा जाता था, उसके लिए निर्वाणांगार चूर्ण शब्द का प्रयोग हुआ है। यह श्वेत शिलाजीत (नौसादर) और गंधक को मिलाकर बनाया जाता था। निश्चित ही यह बारूद या बारुद जैसा था। आग का स्पर्श पाकर वह तेज गति से दुश्मनों के शिविर पर गिरता था और तबाही मचा डालता था। वास्तु मंडन जाहिर करता है कि उस काल में बारुद तैयार करने की अन्य विधियां भी प्रचलित थी
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महान वास्तु शास्त्री
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